शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

‘‘तुम लुको मां, मैं अभी नाव बनाता हूँ.....।’’

‘‘तुम लुको मां, मैं अभी नाव बनाता हूँ.....।’’

ढाई वर्ष के मासूस सोनू ने कागज की नाँव पानी में डाली तो वह हवा में उलट गई और उसमें पानी भर गया।
सोनू भाग कर आंगन में मां के पास पहुँचा और बोला,
‘‘मां, मेली नाँव दूसली बना दो, वह तो दूब दई है।’’
उसकी विधवा मां (रमा) उदास हो गई। फिर धीरे से बोली, ‘‘बेटे, नाँव तो मेरी भी डूब चुकी है।’’
‘‘तुम लुको मां, मैं अभी नाव बनाता हूँ.....।’’

‘‘तुम्हाली नाँव तैसे दूबी मां?’’ सोनू ने आश्चर्य व्यक्त किया, क्योंकि उसने मां के पास कभी कागज की नाव नहीं देखी थी।

रमा ने शून्य में देखते हुए धीरे से कहा, ‘‘एक दिन तूफान आया, बस, डूब गई...............।’’

‘‘तुम दूसली नाँव त्यों नहीं बनातीं?’’ सोनू अपने नन्हें हाथों से मां का मुख ऊपर उठा पूछने लगा।

रमा की आँखों में आंसू छलक आए। उन्हें पोंछती हुई वह इस तरह बोली जैसे अपने से ही कह रही हो, ‘‘अब मेरी दूसरी नइया नहीं बन सकती, सोनू, क्योंकि इस जीवन में तुम आ चुके हो और मेरा उपयोग हो चुका है....औरत एक वस्तु है बेटे, जो मिट्टी के बर्तन की तरह ......जूठी होती है.....।’’

सोनू की समझ में कुछ न आया। उसने दूर एक बादामी कागज देखा और दौड़ कर उसे उठा लिया। फिर रमा की गोद में सिमट कर बैठ गया और कागज को जमीन पर फैलाते हुए बोला, ‘‘तुम लुको मां, मैं अभी नाव बनाता हूँ.....।’’
रमा एक बार फिर स्तब्ध सी 5 महीने पहले दुर्घटना में उसे छोड़ गये रौशन की याद में घिर गई.....।

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