शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

हाथ एक भी गुब्बारा नहीं लगा..........

हाथ एक भी गुब्बारा नहीं लगा..........मगर क्यूं.....
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गैस भरे गुब्बारे लिए फुटपाथ पर खरीददरों की प्रतीक्षा से ऊब कर ऊंघने लगना रामदीन की आदत बन चुकी थी। अर्धचेतनावस्था में रंग–बिरंगे सपनों को गुब्बारों की शक्ल में उड़ते देखता उन्हें पकड़ने की कोशिश, वह हमेशा करता।
कभी–कभी सपनों के किसी गुब्बारे के नीचे लटकती डोर उसके हाथों के पास से गुजरती महसूस होती, पर जैसे ही वह उन्हें पकड़ने को होता, गुब्बारे ऊपर. .... . .... और ऊपर उठ जाते, फिर किसी खरीददार की आवाज से उसकी चेतना यथार्थ में लौट आती। यूं लगता मानों सपने सिमट जा रहे हैं, सिर्फ़ गुब्बारे ही बचते थे।
चालीस सालों में रामदीन अपने सपनों में उड़ते वे एक भी गुब्बारे नहीं पकड़ पाया।
सचमुच रामदीन के जैसे कई सपने तलाशने वाले चेहरे जिंदगी के झंझावातों में कुछ इस तरह खो गये हैं कि वर्षों बाद भी उनके हाथ एक भी गुब्बारा नहीं लगा..........मगर क्यूं.....
अचानक पास ही बज रहे संगीत से रामदीन फिर झुंझला कर जाग गया, गीत के बोल थे - सारे सपने कहीं खो गये, जाने हम क्या से हो गये. .... . ....।
कभी अपने लिये गुब्बारे का सपना देखने वाले रामदीन का जवान बेटा दीपू फैक्ट्री के शोर में अब सपनों की धुंध बनाता है और उसके धुएं में सपनों के चेहरे तलाशता है.....।
रामदीन को याद आता है, कि उसके बेटे दीपू ने कभी गुब्बारे के लिए जिद नहीं की थी.....। यकीनन रामदीन के जैसे वह भी सपनों में संतोष करना सीख गया था........।

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