पत्रकार पहले भी सुरक्षित नहीं था, आज भी नहीं है. पहले पत्रकार पत्रिकारिता कों मिशन के रूप में लेता था, (तब माफिया सशक्त नहीं था, आज रोज़गार के रूप में लेता है. पहले पत्रकार नैतिक मूल्यों के साथ जीता था, आज स्थिति बदल गई है. पत्रकारिता में पहले भी दलाली थी, आज कुछ ज्यादा हो गई है. सड़क से संसद तक पहुँचने की ललक पहले भी थी, आज भी है. इन सब के बावजूद हमें देखना होगा की क्या आज पत्रकार स्वतन्त्र होकर कुछ लिख सकता है? संपादक (जो अब मैनेजर बन चुका है ) क्या स्वतन्त्र है? मीडिया के अपने हित होते हैं. कभी अखबार कों चलाने, छोटे परदे की टीआरपी कों बढ़ाने और व्यावसायिक - तंत्र में घुसपैठ करते रहने की अपनी मजबूरियां होती हैं. स्थायित्व का संकट हर समय बना रहता है. अ- स्थिरता की तलवार हर समय लटकी रहती है. सैकड़ों लोगों कों सही समय पर वेतन देना होता है, तंत्र पर लाखों रूपये रोज़ का खर्च आता है. ये बिलकुल ऐसा ही है जैसे परिवार के मुखिया कों अपने घर का खर्च उठाना हो. कोई भी मुखिया अपने घर कों बर्बाद नहीं करता. उसे खुशहाल देखना चाहता है. लेकिन हम स्वार्थ की दृष्टि से देखते हैं. हम जो देखते हैं, वही सच नहीं होता. सच बहुत विद्रूपता लिए हुए होता है. यहाँ हम उसे दिखा नहीं सकते, बस महसूस ही करा सकते हैं.
सच्चाई ये है की आज पत्रकारिता मिशन नहीं, ग्लैमर का स्थान ले चुकी है.. इस ग्लैमर का कुछ लोग लाभ भी उठा रहे हैं. जहाँ पैसा, शोहरत, सुख-सुविधाएं और ग्लैमर होगा, वहां कुछ लोग लाभ उठाने के लिए बैक डोर से आ ही जाते हैं. इस विषय पर मैं मीडिया मंत्र में लिख चुका हूँ. बहुत सी जगहों पर बहुत बार बोल भी चुका हूँ. वक़्त के साथ बहुत कुछ बदलता रहता है. बहुत से पत्रकार जो आदर्शवाद की कलम लेकर मैदान में आते हैं , उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ता है. अनेक संकटों का सामना करना पड़ता है. अक्सर ऐसा होता है की या तो वे नौकरी से निकाल दिए जाते है, या माफिया उन्हें मारडालता है. आप ह्वाईट कालर क्रिमिनल्स तक नहीं पहुँच सकते. वहीँ स्टोरी होती है, लेकिन वहां आपकी संस्था का मालिक बैठा हुआ मिल जाता है. वो आपसे स्टोरी ले लेगा, फिर मरवा देगा. मरने वाले की कोई गारंटी नहीं लेता. इतिहास भी इसका गवाह है. ये इन्कलाब की बातें मत बेकार हैं.. बकवास है सब! इन्कलाब लाना है तो पत्रकारों कों सशक्त करो, जीने की गारंटी दो, उसके परिवार की सुरक्षा की गारंटी, उसे आर्थिक रूप से मज़बूत करने की गारंटी. तब पूछो की उसके नैतिक मूल्य क्या हैं ? आन्दोलन लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अपनी बात सत्ता के कानों तक पहुंचाने का एक तरीका है. तरीका बुरा भी नहीं है. मगर क्या कोई पत्रकार अपने मालिक से बगावत करके नौकरी बनाए रख सकेगा?
सच्चाई ये है की आज पत्रकारिता मिशन नहीं, ग्लैमर का स्थान ले चुकी है.. इस ग्लैमर का कुछ लोग लाभ भी उठा रहे हैं. जहाँ पैसा, शोहरत, सुख-सुविधाएं और ग्लैमर होगा, वहां कुछ लोग लाभ उठाने के लिए बैक डोर से आ ही जाते हैं. इस विषय पर मैं मीडिया मंत्र में लिख चुका हूँ. बहुत सी जगहों पर बहुत बार बोल भी चुका हूँ. वक़्त के साथ बहुत कुछ बदलता रहता है. बहुत से पत्रकार जो आदर्शवाद की कलम लेकर मैदान में आते हैं , उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ता है. अनेक संकटों का सामना करना पड़ता है. अक्सर ऐसा होता है की या तो वे नौकरी से निकाल दिए जाते है, या माफिया उन्हें मारडालता है. आप ह्वाईट कालर क्रिमिनल्स तक नहीं पहुँच सकते. वहीँ स्टोरी होती है, लेकिन वहां आपकी संस्था का मालिक बैठा हुआ मिल जाता है. वो आपसे स्टोरी ले लेगा, फिर मरवा देगा. मरने वाले की कोई गारंटी नहीं लेता. इतिहास भी इसका गवाह है. ये इन्कलाब की बातें मत बेकार हैं.. बकवास है सब! इन्कलाब लाना है तो पत्रकारों कों सशक्त करो, जीने की गारंटी दो, उसके परिवार की सुरक्षा की गारंटी, उसे आर्थिक रूप से मज़बूत करने की गारंटी. तब पूछो की उसके नैतिक मूल्य क्या हैं ? आन्दोलन लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अपनी बात सत्ता के कानों तक पहुंचाने का एक तरीका है. तरीका बुरा भी नहीं है. मगर क्या कोई पत्रकार अपने मालिक से बगावत करके नौकरी बनाए रख सकेगा?
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