शनिवार, 9 जुलाई 2011

मेरी टिप सार्थक हो गई...................

हमारी गाड़ी मध्यम रफ्तार से चली जा रही थी। छोटे–छोटे कस्बों से बढ़ते हुए। जब चाय पीने की तलब हुई तो क़स्बे से बाहर एक छोटे से ढाबे पर गाड़ी रुकवाई गई। वहां एक गुमटी पर मालिक बैठा था। सामने चार–पांच मर्तवान में बिस्कुट, नानखटाई वगै़रह रखे थे और कुछ बेंचें पड़ी थीं।

वेटर के नाम पर एक दस–ग्यारह वर्ष का लड़का था। उसे तुरंत अच्छी सी चाय बनाने के लिए बोला गया और हम लोगों ने अपना खाना–पीने का सामान निकाल लिया।
चाय से फ़ारिग होकर हमने पैसे पूछे तो लड़के ने नौ रुपए बताए। हमने दस रूपए दिए।

लड़का एक रुपया वापस लेकर आया। ऐसी जगह पर चूंकि टिप का प्रचलन नहीं होता है फिर भी आदत के मुताबिक़ वो एक रूपया मैंने उस लड़के को वापस रखने को दे दिए। लड़का कुछ समझ न सका। वह रूपया जाकर अपने मालिक को देने लगा। मालिक ने हम लोगों की ओर देखते हुए कहा कि ‘रख’लो ये तुम्हारा ही है।’

लड़के ने तुरंत उत्साहित होकर सामने रखे मर्तबान में से कुछ बिस्कुट निकाले और रुपया मालिक को देकर बेंच पर बैठकर बिस्कुट खाने लगा।

उसे बिस्कुट खाता देखकर मुझे लगा कि मेरी टिप सार्थक हो गई।

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