विश्वस्तरीय प्रदर्शन के लिए प्रधानमंत्री ट्राफी पाने
वाला भिलाई इस्पात संयंत्र ईनाम के लायक नहीं.....?
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नई दिल्ली, 23 सितंबर (डाऊन टु अर्थ)। सर्वश्रेष्ठ एकीकृत इस्पात संयंत्र की प्रधा
वाला भिलाई इस्पात संयंत्र ईनाम के लायक नहीं.....?
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नई दिल्ली, 23 सितंबर (डाऊन टु अर्थ)। सर्वश्रेष्ठ एकीकृत इस्पात संयंत्र की प्रधा
नमंत्री ट्राफी से नवाजे गए देश के दो इस्पात संयंत्र, भिलाई इस्पात और जमशेदपुर टाटा इस्पात इसके लायक नहीं। पर्यावरण समेत अनेक मुद्दों पर काम कर रहे देश के एक प्रमुख संगठन ने अपने सर्वे का हवाला देते हुए इस ट्राफी के लिए होने वाली चयन प्रक्रिया में तत्काल सुधार करने की मांग करते हुए कहा है कि इसमें राज्य के प्रदूषण नियंत्रण मंडलों और स्थानीय समुदायों की चिंताओं पर भी ध्यान दिया जाए।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 27 अगस्त को एक चमक-दमकभरे समारोह में छत्तीसगढ़ के भिलाई इस्पात संयंत्र और जमशेदपुर के टाटा इस्पात संयंत्र को सक्षमता, गुणवत्ता और किफायत में अंतरराष्ट्रीय मानदंड पर खरा उतरने के लिए 2009-10 के सर्वश्रेष्ठ एकीकृत इस्पात संयंत्र का पुरस्कार दिया, लेकिन इन दोनों ही इस्पात संयंत्रो का बरसों से पर्यावरण के मामले में खराब प्रदर्शन रहा है। और इससे यह जाहिर होता है कि पुरस्कार देते समय सक्षमता और पर्यावरण के मुद्दे को अनदेख किया गया।
इस्पात मंत्रालय की वेबसाईट पर दी गई जानकारी के मुताबिक इस्पात संयंत्रों के बीच स्पर्धा खड़ी करने के लिए 1992 से शुरू किए गए इस पुरस्कार के लिए 2 करोड़ रुपये की राशि दी जाती है। हर साल एक निर्णायक मंडल विभिन्न मानदंडों ग्राहक संतोष और संयंत्र के दौरे के अनुभवों के आधार पर इन पुरस्कारों का फैसला करता है।
समाचार के मुताबिक निर्णायक मंडल द्वारा किए गए मूल्यांकन में गृह व्यवस्था, पर्यावरण प्रबंधन, वनीकरण, जल संवर्धन , सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय स्तर हासिल करने के लिए की गई कोशिश जैसे पर्यावरण के मुद्दों पर भी विचार किया था।
अन्य मानदंडों में परिधीय और सहायक विकास, सुरक्षा, स्वास्थ्य , उपकरणों की स्थिति, कार्पोरेट प्रशासन, गुणवत्ता और आर्थिक पक्ष, ग्राहक संतोष के लिए अपनाई जाती प्रक्रिया, लिंगभेद दूर करने के लिए की गई कोशिशें, महिला , विकलांग और समाज के पिछड़ेवर्ग सशक्तिकरण शामिल है।
यह मूल्यांकन सांख्यिकी विशेषज्ञ और ऊर्जा और बिजली क्षेत्र में योजना आयोग के प्रधान सलाहकार प्रोनब सेन ने किया था। निर्णायक मंडल में इस्पात उद्योग और अकादमिक जगत के मान्धाता मौजूद थे जिनमें मारुति उद्योग के पूर्व प्रबंध निदेशक आरएसएसएलएन भास्करुदु, सेल दुर्गापुर के पूर्व प्रबन्ध निदेशक एस के भट्टाचार्य , बंगलौर स्थित ज़ेवियर्स प्रबन्ध और उद्यमिता संस्थान के उप अध्यक्ष जे फिलिप , बैंक यूनियन के पूर्व नेता के एक नाय्र सेल, मित्तल स्टील्स के साथ काम कर चुके के ए पी सिंह, इस्पात मंत्रालय के अफसर, आई आई टी कानपुर के प्रोफेसर सूर्य प्रताप मेहरोत्रा, और प्रधानमंत्री ट्राफी सचिवालय के अफसर शामिल थे।
ऐसे लोगों द्वारा सर्वश्रेष्ठ चुने गए इस्पात संयंत्रों के बारे में सीएसई ग्रीन रेटिंग प्रोजेक्ट के सर्वे ने पाया कि यह संयंत्र पर्यावरण के विभिन्न मानदंडों का गम्भीर उल्ल्ंघन करते हैं। 2007 -10 के बीच भिलाई इस्पात संयंत्र के लिए छत्तीसगढ़ पर्यावरण संरक्षण मंडल ( सीईसीबी) की रिपोर्ट में लगातार ज्यादा प्रदूषण उत्सर्जन की चेतावनी दी गई है। यह चेतावनी लौह अयस्क तैयर करने वाले धातुमल संयंत्रों, बिजली संयंत्रों, कोयले से कोक बनने वाले कोक ओवंस इस्पात बनने वाले स्टील मेल्टिंग शॉप्स , और संयंत्र के अन्य हिस्सों के उत्सर्जन के बारे में दी गई है। मंडल ने प्रदूषण की समस्या पर स्थानीय मीडिया में आई खबरों का भी संज्ञान लिया है।
जीआरपी की रिपोर्ट में कहा गया है कि कम्पनी अब भी बरसों पुरानी जुड़वां चूल्हा तकनीक से इस्पात बनाती है जिससे गंभीर प्रदूषण पैदा होता है। इस प्रक्रिया से इस्पात बनाने में आठ घंटे लगते हंै और गहरी लाल मिट्टी उत्सर्जित होती है जबकि बेसिक आक्सीजन फर्नेस प्रक्रिया की आधुनिक तकनीक में शुद्ध आक्सीजन की आपूर्ति की जाती है और इस्पात बनाने में 50 मिनट का ही समय लगता है।
यही नहीं सर्वे में यह भी पता चला कि भिलाई इस्पात संयंत्र के लिए सेल के क्षमता उपयोग के दावे भी संदिग्ध हंै। रेटिंग से पता चला कि इतने ही पैमाने पर बेसिक आक्सीजन फर्नेस या लिंज़ डोनावाटिस कंवर्टरों के इस्तेमाल से इस्पात बनने के लिए अलग-अलग इस्पात संयंत्र अलग-अलग सालाना क्षमता बता रहे हैं। मिसालन सेल का भिलाई स्थित संयंत्र 130 टन क्षमता के हीट एल डी कंवर्टरों से स्टील मेल्टिंग शॉप 2 में सलाना 6 लाख मीट्रिक टन की सालाना क्षमता दिखा रहा है, जबकि इस्पात संयंत्र , जे एस डब्लू के विजयनगर संयंत्र में स्टील मेल्टिंग शॉप 1- इकाई इतनी ही, 130 टन हीट एल डी कनवर्टर की सालाना क्षमता 13 लाख 30 हज़ार मीट्रिक टन की सालाना क्षमता बता रहा है।
जाहिर है भिलाई इस्पात ने एल डी कंवर्टरो की अपनी क्षमता बहुत कम कर के बताई, लेकिन संयंत्र हाल के बरसों में स्टील मेल्टिंग़ शॉप की 120 से 130 फीसदी क्षमता का उपयोग करने का दावा करता रहा है। केन्द्रीय इस्पात मंत्रालय की सालाना रिपोर्ट में यही कहा गया है इतना ही कम नहीं था तो भिलाई इस्पात संयंत्र पुरस्कार शुरू होने के 17 वर्षों में दस बार प्रधानमंत्री ट्राफी जीतकर देश के किसी भी सरकारी या निजी इस्पात संयंत्र से आगे निकलने का दावा करता है।
भिलाई इस्पात संयंत्र के एक साल पहले के लिए ट्राफी पाने वाले जमशेदपुर स्थित टाटा इस्पात संयंत्र को भी झारखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल से, इसकी कोक बैटरीज़ और धातुमल संयंत्रों से निकल रहे भारी प्रदूषण के लिए कारण बताओ नोटिस, और निर्देश कई बार मिल चुके हैं। यही नहीं सुबर्नरेखा और खरखई नदी के किनारे इसके द्वारा फेंका जा रहा इस्पात लावा और ठोस कचरा भी चिंता का विषय बना हुआ है। संयंत्र के आसपास रहते लोगों ने इससे हो रहे प्रदूषण की शिकायत भी की है।
इन दोनों संयंत्रों की जांच करने पर पता लगता है कि पर्यावरण संबंधी इनका प्रदर्शन कहीं से भी विश्वस्तरीय नहीं है।
सीएसई के ग्रीन रेटिंग प्रोजेक्ट के वरिष्ठ प्रोग्राम मैनेजर उमाशंकर एस ने कहा है कि सर्वे से मिली जानकारी के बाद पता चलता है कि सर्वश्रेष्ठ एकीकृत इस्पात संयंत्र के लिए प्रधानमंत्री ट्रॉफी के लिए होने वाली चयन प्रक्रिया की समीक्षा किए जाने की फौरन जरूरत है। उन्होंने कहा कि इस प्रक्रिया में राज्य प्रदूषण मंडलों की चिंताओं, स्थानीय समुदायों की राय, सुरक्षा संबंधी गतिविधियों को ज्यादा अहमियत दी जानी चाहिए।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 27 अगस्त को एक चमक-दमकभरे समारोह में छत्तीसगढ़ के भिलाई इस्पात संयंत्र और जमशेदपुर के टाटा इस्पात संयंत्र को सक्षमता, गुणवत्ता और किफायत में अंतरराष्ट्रीय मानदंड पर खरा उतरने के लिए 2009-10 के सर्वश्रेष्ठ एकीकृत इस्पात संयंत्र का पुरस्कार दिया, लेकिन इन दोनों ही इस्पात संयंत्रो का बरसों से पर्यावरण के मामले में खराब प्रदर्शन रहा है। और इससे यह जाहिर होता है कि पुरस्कार देते समय सक्षमता और पर्यावरण के मुद्दे को अनदेख किया गया।
इस्पात मंत्रालय की वेबसाईट पर दी गई जानकारी के मुताबिक इस्पात संयंत्रों के बीच स्पर्धा खड़ी करने के लिए 1992 से शुरू किए गए इस पुरस्कार के लिए 2 करोड़ रुपये की राशि दी जाती है। हर साल एक निर्णायक मंडल विभिन्न मानदंडों ग्राहक संतोष और संयंत्र के दौरे के अनुभवों के आधार पर इन पुरस्कारों का फैसला करता है।
समाचार के मुताबिक निर्णायक मंडल द्वारा किए गए मूल्यांकन में गृह व्यवस्था, पर्यावरण प्रबंधन, वनीकरण, जल संवर्धन , सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय स्तर हासिल करने के लिए की गई कोशिश जैसे पर्यावरण के मुद्दों पर भी विचार किया था।
अन्य मानदंडों में परिधीय और सहायक विकास, सुरक्षा, स्वास्थ्य , उपकरणों की स्थिति, कार्पोरेट प्रशासन, गुणवत्ता और आर्थिक पक्ष, ग्राहक संतोष के लिए अपनाई जाती प्रक्रिया, लिंगभेद दूर करने के लिए की गई कोशिशें, महिला , विकलांग और समाज के पिछड़ेवर्ग सशक्तिकरण शामिल है।
यह मूल्यांकन सांख्यिकी विशेषज्ञ और ऊर्जा और बिजली क्षेत्र में योजना आयोग के प्रधान सलाहकार प्रोनब सेन ने किया था। निर्णायक मंडल में इस्पात उद्योग और अकादमिक जगत के मान्धाता मौजूद थे जिनमें मारुति उद्योग के पूर्व प्रबंध निदेशक आरएसएसएलएन भास्करुदु, सेल दुर्गापुर के पूर्व प्रबन्ध निदेशक एस के भट्टाचार्य , बंगलौर स्थित ज़ेवियर्स प्रबन्ध और उद्यमिता संस्थान के उप अध्यक्ष जे फिलिप , बैंक यूनियन के पूर्व नेता के एक नाय्र सेल, मित्तल स्टील्स के साथ काम कर चुके के ए पी सिंह, इस्पात मंत्रालय के अफसर, आई आई टी कानपुर के प्रोफेसर सूर्य प्रताप मेहरोत्रा, और प्रधानमंत्री ट्राफी सचिवालय के अफसर शामिल थे।
ऐसे लोगों द्वारा सर्वश्रेष्ठ चुने गए इस्पात संयंत्रों के बारे में सीएसई ग्रीन रेटिंग प्रोजेक्ट के सर्वे ने पाया कि यह संयंत्र पर्यावरण के विभिन्न मानदंडों का गम्भीर उल्ल्ंघन करते हैं। 2007 -10 के बीच भिलाई इस्पात संयंत्र के लिए छत्तीसगढ़ पर्यावरण संरक्षण मंडल ( सीईसीबी) की रिपोर्ट में लगातार ज्यादा प्रदूषण उत्सर्जन की चेतावनी दी गई है। यह चेतावनी लौह अयस्क तैयर करने वाले धातुमल संयंत्रों, बिजली संयंत्रों, कोयले से कोक बनने वाले कोक ओवंस इस्पात बनने वाले स्टील मेल्टिंग शॉप्स , और संयंत्र के अन्य हिस्सों के उत्सर्जन के बारे में दी गई है। मंडल ने प्रदूषण की समस्या पर स्थानीय मीडिया में आई खबरों का भी संज्ञान लिया है।
जीआरपी की रिपोर्ट में कहा गया है कि कम्पनी अब भी बरसों पुरानी जुड़वां चूल्हा तकनीक से इस्पात बनाती है जिससे गंभीर प्रदूषण पैदा होता है। इस प्रक्रिया से इस्पात बनाने में आठ घंटे लगते हंै और गहरी लाल मिट्टी उत्सर्जित होती है जबकि बेसिक आक्सीजन फर्नेस प्रक्रिया की आधुनिक तकनीक में शुद्ध आक्सीजन की आपूर्ति की जाती है और इस्पात बनाने में 50 मिनट का ही समय लगता है।
यही नहीं सर्वे में यह भी पता चला कि भिलाई इस्पात संयंत्र के लिए सेल के क्षमता उपयोग के दावे भी संदिग्ध हंै। रेटिंग से पता चला कि इतने ही पैमाने पर बेसिक आक्सीजन फर्नेस या लिंज़ डोनावाटिस कंवर्टरों के इस्तेमाल से इस्पात बनने के लिए अलग-अलग इस्पात संयंत्र अलग-अलग सालाना क्षमता बता रहे हैं। मिसालन सेल का भिलाई स्थित संयंत्र 130 टन क्षमता के हीट एल डी कंवर्टरों से स्टील मेल्टिंग शॉप 2 में सलाना 6 लाख मीट्रिक टन की सालाना क्षमता दिखा रहा है, जबकि इस्पात संयंत्र , जे एस डब्लू के विजयनगर संयंत्र में स्टील मेल्टिंग शॉप 1- इकाई इतनी ही, 130 टन हीट एल डी कनवर्टर की सालाना क्षमता 13 लाख 30 हज़ार मीट्रिक टन की सालाना क्षमता बता रहा है।
जाहिर है भिलाई इस्पात ने एल डी कंवर्टरो की अपनी क्षमता बहुत कम कर के बताई, लेकिन संयंत्र हाल के बरसों में स्टील मेल्टिंग़ शॉप की 120 से 130 फीसदी क्षमता का उपयोग करने का दावा करता रहा है। केन्द्रीय इस्पात मंत्रालय की सालाना रिपोर्ट में यही कहा गया है इतना ही कम नहीं था तो भिलाई इस्पात संयंत्र पुरस्कार शुरू होने के 17 वर्षों में दस बार प्रधानमंत्री ट्राफी जीतकर देश के किसी भी सरकारी या निजी इस्पात संयंत्र से आगे निकलने का दावा करता है।
भिलाई इस्पात संयंत्र के एक साल पहले के लिए ट्राफी पाने वाले जमशेदपुर स्थित टाटा इस्पात संयंत्र को भी झारखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल से, इसकी कोक बैटरीज़ और धातुमल संयंत्रों से निकल रहे भारी प्रदूषण के लिए कारण बताओ नोटिस, और निर्देश कई बार मिल चुके हैं। यही नहीं सुबर्नरेखा और खरखई नदी के किनारे इसके द्वारा फेंका जा रहा इस्पात लावा और ठोस कचरा भी चिंता का विषय बना हुआ है। संयंत्र के आसपास रहते लोगों ने इससे हो रहे प्रदूषण की शिकायत भी की है।
इन दोनों संयंत्रों की जांच करने पर पता लगता है कि पर्यावरण संबंधी इनका प्रदर्शन कहीं से भी विश्वस्तरीय नहीं है।
सीएसई के ग्रीन रेटिंग प्रोजेक्ट के वरिष्ठ प्रोग्राम मैनेजर उमाशंकर एस ने कहा है कि सर्वे से मिली जानकारी के बाद पता चलता है कि सर्वश्रेष्ठ एकीकृत इस्पात संयंत्र के लिए प्रधानमंत्री ट्रॉफी के लिए होने वाली चयन प्रक्रिया की समीक्षा किए जाने की फौरन जरूरत है। उन्होंने कहा कि इस प्रक्रिया में राज्य प्रदूषण मंडलों की चिंताओं, स्थानीय समुदायों की राय, सुरक्षा संबंधी गतिविधियों को ज्यादा अहमियत दी जानी चाहिए।