रविवार, 30 अक्तूबर 2011

SANTOSH MISHRA...: मेरी डाय़री के पन्ने में सिमटती......"डायन"

SANTOSH MISHRA...: मेरी डाय़री के पन्ने में सिमटती......"डायन": मेरी डाय़री के पन्ने में सिमटती......"डायन" ****************************** *************************** डायन वाली "खबर" आग की तरह पूरे देश...

SANTOSH MISHRA...: बदलने की प्रक्रिया

SANTOSH MISHRA...: बदलने की प्रक्रिया: समय की तकली में रूई की तरह कत रहा है "वर्तमान" और उसी तकली की बेंत पर सूत सा लिपट रहा है "भूत"। सूत के आदिम छोर को पकड़ धीरे-धीरे "वर्तमान...

बदलने की प्रक्रिया


समय की तकली में रूई की तरह कत रहा है "वर्तमान" और उसी तकली की बेंत पर सूत सा लिपट रहा है "भूत"।
सूत के आदिम छोर को पकड़ धीरे-धीरे "वर्तमान" तक जाओगे तो पता चलेंगी तुम्हें "विकास व सभ्यता" की तमाम गाथाएं।
तुम जानने लगोगे कि "पशु" से "मनुष्य" में बदलने की प्रक्रिया कितनी धीमी थी और यहभी समझ लोगे कि आज कितनी जल्दी बदल जाते हैं लोग "मनुष्य" से "पशु" में...............(संतोष मिश्रा)

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

मेरी डाय़री के पन्ने में सिमटती......"डायन"

मेरी डाय़री के पन्ने में सिमटती......"डायन"
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डायन वाली "खबर" आग की तरह पूरे देश में फैल गई, लोग कसमें खा कर कहते उन्होंने "डायन" को देखा है, उसके रोने-चीखने की आवाज सुनी है.......।


लोग मुझसे भी बता रहे थे.. ..."खिड़की की सलाखों से पंजे बढ़ाती है डायन भूख..! भूख...! चिल्लाती है....! खाना मांगती है....।"
मेरे साथ कई लोग विस्मय से आंखें फैला कर डायन का किस्सा सुनते।

"आश्चर्य....ऐसी घनी आबादी वाले इलाके में शहर के बीचो बीच डायन का होना क्या कोई मामूली बात थी। पहले तो सब ठीक था, अचानक यह घर भूत बंगला कैसे बन गया....ये सोच रहा था मैं भी।"

जितनी मुंह उतनी बातें। ऐसी हलचल मची कि मीडिया वालों की लाईन लग गई।
सबसे लोकप्रिय चैनल वालों ने डायन का लाइव टेलीकास्ट शुरू कर दिया।
लाखों दर्शक सांस रोक देख रहे थे।

घने अंधेरे को चीरते हुए कैमरा आगे बढ़ रहा था।
रिपोर्टर गहरी रहस्यमय आवाज में कह रहा था-क्या आज खत्म हो जायेगा डायन का खूनी खेल......
चर्रर्र..... की आवाज के साथ दरवाजा खुला।
भीतर से सिसकी की आवाज आ रही थी। लोगों के रोंगटे खड़े हो गए। सचमुच एक परछाई जो दिखी थी। अब की तस्वीर साफ थी। सचमुच डायन ही थी। बूढ़ा जर्जर शरीर, वीरान सी आंखें..., कमर पर झूलते चीथड़े गंदगी में लिपटा हुआ बदन..।

उसके खरखराते हुए गले से चीख निकली, लोग सहमे....। अब झपटी डायन खून पी लेगी रिपोर्टर का। पर डायन तो कांपती हुई उसके पैरों पर गिर कर रो पड़ी।
वो कह रही थी - "बेटा, बहू से कहना मैं कुछ नहीं बोलूंगी, कुत्ते की तरह तेरे दरवाजे पर पड़ी रहूंगी। कितने दिनों से तेरी राह देख रही हूं। जो खाना तू दे कर गया था, कब का खत्म हो गया। मुझे अपने साथ ही ले चल। जो रूखा-सूखा देगा....वहीं खा कर रह लूंगी। मुझे यहां अकेला मत छोड़, मेरे बेटे। अपनी माँ पर दया कर, मेरे लाल..।"
मैं सोच रहा था, कितना दुःख भरा है इस डायन में....किसने भरा, क्यों भरा...मैं अभी भी सोच रहा हूं......(संतोष मिश्रा)
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सोमवार, 8 अगस्त 2011

"आंखें" बंद किये देख रहा हूं, चापलूसों को.......

मैं देख रहा हूं.....
"भाव" के "अभाव" में हौले से जन्मता है "दुर्भाव",
"दुर्भावना" के दबाव में सिसक रही है "भावना",
और आप कहते हैं कि....
"भावना" को समझिये "शब्दों" में क्या रखा है....!
हां, गलत कहते हैं आप,
सब "शब्दों" का ही "खेल" है,
शब्दों ने ही "अलग" किया,
और अब तो जनाब "शब्दों" में ही "मेल" है,
"भावना", "संवेदना" सब "खत्म" हो रही हैं
और मैं सिर्फ और सिर्फ "आंखें" बंद किये देख रहा हूं, चापलूसों को.......
और मैं सिर्फ और सिर्फ "आंखें" बंद किये देख रहा हूं, चापलूसों को.......





शनिवार, 6 अगस्त 2011

बड़े आदमी की माँ

बड़े आदमी की माँ



तेज चिलचिलाती धूप में एक माँ अपने बेटे का बैग थामे उसे स्कूल से लेकर चली आ रही है। मन में बड़े–बड़े अरमान लिए कि,‘मेरा बेटा एक दिन ‘बड़ा आदमी’ बनेगा।’ हाथ की छतरी ऐसे पकड़े है कि खुद की कुछ परवाह नहीं है किंतु बेटे पर धूप का एक कतरा भी न पड़ने देती है।तीस साल बीत चुके हैं, आज उसका बेटा ‘बड़ा अधिकारी बन चुका है, सारे शानो–शौकत का मालिक है परंतु वह माँ आज भी चिलचिलाती धूप में स्कूल का बैग थामे अपने पोते को साथ लिए चली जा रही है, छाता भी वैसे ही पकड़े है कि पोते पर धूप का एक कतरा भी न पड़े, यकीनन यह पोता भी ‘बड़ा अधिकारी’ बनेगा....।

नासमझ

नासमझ


नन्ही पिंकी आज बहुत खुश थी। जिन गन्दी गरीब लड़कियों के साथ उसे खेलने की इजाजत नहीं थी, आज उन्हें ही बंगले में बुलाया गया था। वो भी दादी माँ के आदेश पर।

आज दुर्गाष्टमी जो थी। दादी माँ ने अपने हाथों से उन सभी के ललाट पर रोली का टीका लगाया। उनके हाथों में मौली का धागा बाँधकर उनका पूजन किया फिर उन सभी के आगे बड़े–बड़े थाल भरकर खरी–पूड़ी, हलवा व चने का शाक परोसा।

इस पर माँ ने हल्का-सा विरोध किया था, ‘‘ माँ जी इतनी छोटी बच्चियाँ इतना ज्यादा खाना नहीं खा पाएंगी।’’
दादी भड़क उठी थीं, ‘‘ये कैसी ओछी बात कर दी बहू तुमने। देवी के के शाप से डरो। ये कन्याएँ देवी का ही रूप् हैं।’’ माँ ने फौरन चुप्पी साध ली थी।
शरमाती–सकुचाती, सहमी हुई बच्चियों ने आधे से ज्यादा खाना झूठा छोड़ दिया था। दादी ने उन गरीब बच्चियों के हाथ में दस–दस रुपए के करारे नोट पकड़ाए।
उनके जाने के बाद दादी के कहने पर नौकर रामू ने उनकी थालियों की जूठन चार प्लास्टिक की थैलियों में भरकर दरवाजे पर रख दी। ये सब देख पिंकी पूछ बैठी।

‘‘दादी जूठे खाने को रामू ने थैलियों में डालकर क्यों रखा है?’’

दादी ने समझाया, ‘‘आज दुर्गाष्टमी है ना। जमादारिन खाना माँगने आती ही होगी उसे देने के लिए ही रखा है।’’
पिंकी किंचित हैरानी से बोली, ‘‘दादी ये तो जूठा खाना है। आप तो कहती हो कि किसी दूसरे का जूठा खाना नहीं खाना चाहिए। बहुत सी बीमारियाँ लग जाती हैं और पाप भी लगता है?’’

दादी मुस्करायी, ‘‘अरे बिट्टो आज के दिन कन्याओं का ये जूठन,देवी का प्रसाद होता है, इसे खाकर तो जमादारिन की सभी बीमारियाँ ठीक हो जाएगी साथ ही उसके कई जन्मों के पाप भी धुल जाएंगे।
जमादारिन की रोटी माँगने की आवाज सुनकर रामू खाने की थैलियाँ लेने अन्दर आया किन्तु कमरे का दृश्य देखकर स्तब्ध रह गया। पिंकी थैलियों में रखी जूठन निकालकर अपनी खाने की थाली में डाल रही थी। तभी दादी माँ भी जमादारिन को पैसे देने उधर आ पहुँची।
‘‘पिंकी ये क्या गजब कर रही है?’’
दादी माँ की दहाड़ सुनकर सहमी पिंकी धीरे से बोली, ‘‘दादी थोड़ा सा देवी का प्रसाद ले रही थी। इसके खाने से मेरे टांसिल भी हमेशा-हमेशा के लिए ठीक हो जाएंगे।’’
दादी भड़क उठी, ‘‘बेवकूफ लड़की ये खाना तेरे लिए जहर है। ना जाने कितनी बीमारियाँ समेटे गन्दे, गरीब व छोटी जात की लड़कियों की जूठन है ये। मूर्खा दुनिया भर के पाप अपने सिर पर लगाना चाहती है?’’
पिंकी हैरान थी, ‘‘पर दादी आपने ही तो कहा था कि ये देवी माँ का प्रसाद है। इसके खाने से जमादारिन की सभी बीमारियाँ ठीक हो जाएगी तो फिर मेरे टांसिल....दादी आग बबूला हो उसी बात काटती हुई चिल्लाई, ‘‘चुप कर, बित्ते भर की छोकरी होकर मुझसे बहस करती है। आज तक तेरी माँ की हिम्मत नहीं हुई, मुझसे इस तरह के सवाल–जवाब करने की।’’
नन्हीं पिंकी सहमकर चुप हो गई लेकिन अब भी उसकी समझ में ये नहीं आ रहा था कि जूठा खाना जमादारिन के लिए देवी का प्रसाद है वो उसके लिए जहर कैसे हो सकता है?

भीख माँगनेवाले परेशान कर डालते हें, साब!

भीख माँगनेवाले परेशान कर डालते हें, साब!

भीड़ भरे बाजार में सब्जी का ठेला लगाने के लिए उसे सुबह आते से ही नगर निगम कर्मचारियों को ‘वसूली’ देना पड़ती थी। यातायात पुलिस वाले को प्रतिदिन शाम को तीस रुपए देने पड़ते थे, ताकि यातायात सुचारु रूप से चल सके।
आज शाम को ठेले पर ग्राहकों की अच्छी–खासी भीड़ जमा थी। उसको ग्राहकों के बीच व्यस्त देखकर पुलिसवाला एक तरफ खड़ा हो गया। उसने हाथ में पकड़ा हुआ डण्डा बगल में दबा लिया था।
ग्राहकों से फु्र्सत पाते ही वह पुलिसवाले को देने के लिए रुपए इकट्ठे कर ही रहा था, तभी एक भिखारी दुआएँ देता हुआ आ खड़ा हुआ। एक का सिक्का उसके बर्तन में डालने के बाद पुलिस वाले को रुपए थमाते हुए उसने झुँझलाकर कहा–‘दिन भर भीख माँगनेवाले परेशान कर डालते हें, साब! भगवान जाने कब इनसे पीछा छूटेगा।’

झगड़ रहे थे,खच्चर की देखभाल वे ही करेंगे............

झगड़ रहे थे,खच्चर की देखभाल वे ही करेंगे............

उम्र के इस मुकाम पर जब उसे आराम की ज़रूरत थी, रामलाल खच्चर रेहड़ी पर सीमेंट, लोगों के घर का सामान, सब्जी मंडी से सब्जी आदि लाद कर, यहाँ से वहाँ पहुँचाता था। घर हालांकि बहुत बड़ा था, पर उसमें रामलाल और उसकी पत्नी ही रहते थे। अपनी दिन–प्रतिदिन कमजोर होती देह को किसी तरह संभाले,अपने खच्चर के साथ रामलाल दिन भर मजदूरी करता और तीनो जने, मतलब रामलाल उसकी पत्नी और खच्चर किसी तरह खा–पीकर आराम करते। यह बड़ा सा मकान रामलाल ने अपनी जवानी में ही बना लिया था। दो बेटे हुए, उनको पढ़ाया, बेटों को अच्छी नौकरी मिली, उनकी शादियाँ हुई और वे अलग होकर रहने लगे। रामलाल ने यह समझदारी की, कि जीते जी अपनी संपति का बंटवारा नहीं किया। लेकिन बेटे नाराज थे कि पिताजी आज भी खच्चर रेहड़ी चलाते हैं। पता नहीं किसके लिए कमा रहे हैं। बेटों को तो कुछ देते नहीं। हालांकि बेटों से कुछ लेते भी नहीं थे रामलाल!
जैसेकि आमतौर पर सभी बूढ़ों के साथ होता है, अन्तत: ऐसी स्थिति भी आई कि रामलाल का शरीर जवाब दे गया और वे खच्चर रेहड़ी चलाने में भी असमर्थ हो गए। बस किसी तरह अपनी दैनिक दिनचर्या निभाते। बेटों ने फिर याद दिलाया कि अब तो खच्चर की ज़रूरत भी नहीं रही। सो किस लिए उसे रखा हुआ है। रामलाल ने बेटों को अपने घर में ही मस्त रहने की सलाह दी और कहा कि वे उसे सलाह न दें। रामलाल खच्चर की बाग पकड़े टहलने निकलते और कभी- कभार उसकी पीठ पर सवार हो वापिस लौटते। पत्नी भी अब आराम के लिए कहने लगी थी, हालांकि खच्चर बेच देने के लिए उसने कभी नहीं कहा।
रामलाल की मृत्यु हो गई। रामलाल की पत्नी ने न जाने क्या सोच कर तब भी खच्चर को नहीं बेचा। हालांकि बेटों ने अब भी कहा कि खच्चर समेत इस पुराने मकान को भी बेच दिया जाए और सब भाइयों में इसका बँटवारा कर दिया जाए। लेकिन वे असफल होकर अपने–अपने घरों को लौट गए। कुछ ही दिनों बाद रामलाल की पत्नी की भी मृत्यु हो गई। रामलाल के बेटे, रामलाल ने वसीयत और खच्चर सबको ठिकाने लगाने की योजना बना ही रहे थे कि पता चला रामलाल ने वसीयत की हुई है। अजीब सी बात है कि उन्होंने अपने बेटों को कभी इसके बारे में नहीं बताया था। एक वकील ने बताया कि रामलाल की वसीयत के अनुसार रामलाल और उसकी पत्नी की मृत्यु के बाद जब तक वह खच्चर जीवित रहेगा, उसके खान–पान का इंतजाम उनके बैंक खाते से किया जाए। न तो उनका मकान खच्चर के रहते बेचा जाए और न ही किराए पर दिया जाए। हाँ, जो व्यक्ति खच्चर की देखभाल करेगा, वह उस मकान के एक हिस्से में रह सकता हे। खच्चर की मृत्यु के बाद यह मकान और संपति आदि उसी को दी जाए, जिसने खच्चर की देखभाल की हो।
जिन बेटों ने कभी बाप की परवाह नहीं की, जो उसे खच्चर बेचने के बार–बार दबाव डालते रहे, वे ही अब झगड़ रहे थे कि खच्चर की देखभाल वे ही करेंगे।

एहसास................

एहसास



बहुत दिन हो गए थे, वह अपने पिता से नहीं बोला था। रहते तो दोनों एक ही घर में थे, लेकिन दोनों में कोई बातचीत न होती थी। इस बारे में परिवार के दूसरे सदस्यों को भी पता था। एक दिन उस की दादी ने पूछ ही लिया, ‘‘बेटा, तू अपने पिता से क्यों नहीं बोलता? आदमी के तो मां–बाप ही सब कुछ होते हैं। तेरे लिए कमा रहा है, उसने क्या अपने साथ ले जाना है।’’
दादी माँ की बात सुनकर वह बोला, ‘‘अम्मा! तेरी सब बातें ठीक हैं। मुझे कौन सा कोई गिला–शिकवा है। मैं तो उन्हें केवल एहसास करवाना चाहता हूँ। वे भी दफ्तर से आकर सीधे अपने कमरे में चले जाते हैं, तुम्हारे साथ एक भी बात नहीं करते।

राखी में न पहुँचने का दर्द...............

राखी में न पहुँचने का दर्द......................

बहन, मैं रक्षाबन्धन के त्यौहार पर तुम्हारे पास नहीं पहुचं सकूँगा जबकि हर वर्ष पहुंचता था। तुम्हें तकलीफ होगी, मैं भलीभांति समझता हूं। हमारे रीति–रिवाज हमारी संस्कृति के अंग है और हम इन्हें बिना किसी संकोच के ईमानदारी के साथ निभाते आ रहे हैं।

बहन, मैंने पिछले वर्ष ही पढ़ाई छोड़ी है। मैं एक विद्यार्थी–भर ही रहा। में तुमसे राखी बंधवाता रहा और तुम्हारी रक्षा करने की जिम्मेवारी को दोहराता रहा। मां–बाप द्वारा दिए गए उपहार तुम तक पहुँचाता रहा। पढ़ाई खत्म होने के बाद मैंने नौकरी की तलाश में भटकना शुरू कर दिया। एक रोज़गार–प्राप्त अपने सहपाठी के साथ रह रहा हूं। माँ–बाप को झूठमूठ तसल्ली देता हूं कि नौकरी तो मिल गई है परन्तु तन्ख्वाह थोड़ी है और अपना गुजारा मुश्किल से कर पाता हूँ। अत: फिलहाल कुछ भेज नहीं पाऊँगा। असल में नौकरी मिलने की सम्भावना दूर–दूर तक नहीं है। घर की स्थिति के बारे में तुम जानती ही हो कि काम–धन्धे के लिए माँ–बाप के पास रुपए नहीं हैं हालाँकि मुझे व्यवसाय करने में कोई संकोच नहीं है।

मेरी प्यारी बहन, तुम्हें आरक्षण कोटे में नौकरी मिल गई थी। जीजा जी भी नौकरी में हैं। दोनों अच्छा कमा लेते हो। हां, जो मैं कहने जा रहा हूँ, यह कुछ अटपटा लग सकता है। हमारी परम्परा में जहां तक मैं समझता हूं, बहन की रक्षा की बात तक उठी होगी जब वह किसी न किसी रूप में आश्रित रही होगी पर, आज तो नहीं।

आज के युग में रक्षा को केवल शारीरिक क्षमता से नहीं जोड़ा जाता। पैसे के बल पर सब कुछ सम्भव है, है न बहन! या तो सरकार पहले पुरुषों को रोजगार दे या फिर धर्म–गुरु रक्षा के दायित्व को, उठा सकने वाले पर डाल दें।

बहन, मुझे तुम्हारे पत्र का इन्तजार रहेगा। परन्तु मुझे जल्दी नहीं है। तुम जीजा जी से, अपने संस्थान के सहयोगियों से, किसी पत्र/पत्रिका के सम्पादक से, किसी राजनेता से, किसी धर्म–गुरु से सलाह मशविरा करकेबताना–क्या यह सम्भव होगा?....तुम्हारा भाई–निर्विभवत हो गए।

जवाब का इन्तेजार है......................

‘‘गलती क्या............’’

‘‘गलती क्या...’’ मैं कुछ पूछना चाहता था



बात काफी बढ़ गयी थी और मैं चाहता नहीं था कि यह किस्सा मेरे घर तक भी पहुँचे। मैं किसी तरह से इस बात को यहीं रोक देना चाहता था, पर मोहल्ला था कि इसे फैला देने पर तुला था। मुझे तो मेरा कसूर भी लोगों ने ही बताया था। हालाँकि मैं अब भी उसे अपनी गलती नहीं मान पाया था, पर डर था कि मेरे घर वाले भी इसे मेरी गलती ही न मान लें । साथ के लड़के मुझे आशिक कह कर बुलाने लगे थे, लड़कियाँ मुझे देखकर मुस्कराने लगी थीं। अपने आप को ऊँचा और समझदार समझने वालों ने कहा, ‘इसे और कोई कहाँ मिलेगी?’ आखिर पिता जी ने भी पूछ ही लिया कि माजरा क्या है। मैंने डरते हुए कहा, कोई भी बात नहीं है। पिछले इतवार जब बारिश के कारण सड़कों पर पानी भरा था तो एक अंधी लड़की को हाथ पकड़ कर बस स्टैंड से उसके घर तक छोड़ आया था।’
‘‘जो हुआ सो हुआ, आइंदा ऐसी गलती मत करना।’’ पिता जी ने डाँटने हुए कहा।
‘‘गलती क्या...’’ मैं कुछ पूछना चाहता था,पर पिता जी गुस्से में कमरे से बाहर जा चुके थे।

माँ तो सबकी एक जैसी होती है....तुम्हारा जेबकतरा!’

माँ तो सबकी एक जैसी होती है....तुम्हारा जेबकतरा!’


बस से उतरकर जेब में हाथ डाला। मैं चौंक पड़ा। जेब कट चुकी थी। जेब में था भी क्या? कुल नौ रुपये और एक खत, जो मैंने माँ को लिखा था, कि मेरी नौकरी छूट गई है। अभी पैसे नहीं भेज पाऊँगा। तीन दिनों से वह पोस्टकार्ड जेब में पड़ा था, पोस्ट करने को मन नही नहीं कर रहा था।
नौ रुपये जा चुके थे। यूँ नौ रुपये कोई बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन जिसकी नौकरी छूट चुकी हो, उसके लिए नौ रुपये नौ सौ से कम नहीं होते।
कुछ दिन गुजरें, माँ का खत मिला, पढ़ने से पूर्व मैं सहम गया। जरूर पैसे भेजने का लिखा होगा, लेकिन खत पढ़कर मैं हैरान रह गया। माँ ने लिखा था, ‘‘बेटा, तेरा पचास रुपए का भेजा हुआ मनिआर्डर मिल गया है। तू कितना अच्छा है रे!...पैसे भेजने में कभी लापरवाही नहीं बरतता।’’
मैं इसी उधेड़बुन में लग गया कि आखिर माँ को मनीऑर्डर किसने भेजा होगा?

कुछ दिन बाद एक और पत्र मिला। चंद लाइनें थीं, आढ़ी–तिरछी। बड़ी मुश्किल से खत पढ़ पाया। लिखा था, ‘‘भाई ! नौ रुपये तुम्हारे और इकतालीस रुपये अपनी ओर से मिलाकर, मैंने तुम्हारी माँ को मनीऑर्डर भेज दिया है।....फिकर न करना।...माँ तो सबकी एक जैसी होती है न! वह क्यों भूखी रहे?.....तुम्हारा जेबकतरा!’’
संतोष मिश्रा (सिटी चीफ - छत्तीसगढ़)

रामदीन स्टेज से नीचे उतर भीड़ में खो गया.......

रामदीन स्टेज से नीचे उतर भीड़ में खो गया.......

हे भगवान्, ये क्या अनर्थ हो गया मुझसे.
५० हजार रुपये ईनाम के लिए उसके नाम की पुकार स्टेज से सुनते ही रामदीन अचानक बडबडाने लगा था.
रामदीन नहीं जानता था कि कूड़ेदान वाली इस तस्वीर को इत्ता बड़ा इनाम मिल जायेगा.
जैसे ही उसे आयोजन समिति ने स्टेज पर बुलाया पहले तो वो सकुचा सा गया फिर समिति के कुछ सदस्यों ने उसे ससम्मान ऊपर तक पहुचाने का प्रयास किया तो उसके कदम बढ़ ही नहीं रहे थे.
भीड़ में लोग बुदबुदाने लगे थे, वाह रामदीन के तो भाग जाग गए. लेकिन अभी तो ठीक था अचानक बीमार सा क्यूँ दिखने लगा रामदीन..........?
स्टेज पर पहुँच रामदीन ने जब 50 हजार का इनाम लेने से मना कर दिया तो सबकी आँखें मानो फटी सी रह गईं. छोटी सी दूकान में फोटो खिंच परिवार का पेट पालने वाला रामदीन क्या पागल हो गया. ........? ऐसी बातें दबी जुबान भीड़ में से सुनाई देने लगी थीं.
आयोजन समिति के लोग भी हक्के बक्के से लग रहे थे. ईनाम राशी हाथ में लिए शहर के मेयर भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे, रामदीन उनकी तरफ बढ़ने कि बजाय माइक के तरफ जाने लगा था,
संचालन कर रहे व्यक्ति को हाथ से धकियाते रामदीन माइक हाथ में ले कहने लगा - यह ईनाम मैं नहीं ले सकता, जो मेरे द्वारा खिंची फोटो ईनाम कि हकदार बनी है वो शहर के कूड़ेदान कि फोटो है, मैंने उस रोज देखा मेरे शहर के कुछ गरीब बच्चे कूड़ेदान में घुस कुछ खा रहें हैं.
उनके हाथ में जूठन और कुछ सड़े हुए फल थे. वो बहुत खुश थे. मेरी नजर उन पे पड़ी तो मैंने फोटो लेना चाहा.लेकिन मुझे देख डर के मारे बच्चे कूड़ेदान से निकल भागने लगे. मैंने ५ रुपये का नोट दिखा कर उन्हें वापस बुलाया.उन्हें पैसे देकर फिर से कचरेदान में वापस घुसाया, और फोटो खिंच ली.
ये बताते बताते अचानक रामदीन के पैर कापने लगे रुआंसे गले से वह बोला - अभी तक तो ठीक था लेकिन जैसे ही मेरी खिंची फोटो को पहला स्थान मिला अचानक कपकपी सी लग रही है. मेरी आत्मा अचानक रोने लगी है, ऐसा महसूस हो रहा है कि मै जोर जोर से रोने लगूँ.
मैंने अपने स्वार्थ के लिए उन बच्चों को कूड़ेदान में वापस भेजने का अपराध किया है, मै ईनाम नहीं सजा का हकदार हूँ. इसका प्रायश्चित केवल यही हो सकता है कि मै ये ईनाम न लूँ. ये राशि ऐसे बच्चों के लालन पालन में लगा दी जाए. इतना कह रामदीन स्टेज से नीचे उतर भीड़ में खो गया.

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

‘‘तुम लुको मां, मैं अभी नाव बनाता हूँ.....।’’

‘‘तुम लुको मां, मैं अभी नाव बनाता हूँ.....।’’

ढाई वर्ष के मासूस सोनू ने कागज की नाँव पानी में डाली तो वह हवा में उलट गई और उसमें पानी भर गया।
सोनू भाग कर आंगन में मां के पास पहुँचा और बोला,
‘‘मां, मेली नाँव दूसली बना दो, वह तो दूब दई है।’’
उसकी विधवा मां (रमा) उदास हो गई। फिर धीरे से बोली, ‘‘बेटे, नाँव तो मेरी भी डूब चुकी है।’’
‘‘तुम लुको मां, मैं अभी नाव बनाता हूँ.....।’’

‘‘तुम्हाली नाँव तैसे दूबी मां?’’ सोनू ने आश्चर्य व्यक्त किया, क्योंकि उसने मां के पास कभी कागज की नाव नहीं देखी थी।

रमा ने शून्य में देखते हुए धीरे से कहा, ‘‘एक दिन तूफान आया, बस, डूब गई...............।’’

‘‘तुम दूसली नाँव त्यों नहीं बनातीं?’’ सोनू अपने नन्हें हाथों से मां का मुख ऊपर उठा पूछने लगा।

रमा की आँखों में आंसू छलक आए। उन्हें पोंछती हुई वह इस तरह बोली जैसे अपने से ही कह रही हो, ‘‘अब मेरी दूसरी नइया नहीं बन सकती, सोनू, क्योंकि इस जीवन में तुम आ चुके हो और मेरा उपयोग हो चुका है....औरत एक वस्तु है बेटे, जो मिट्टी के बर्तन की तरह ......जूठी होती है.....।’’

सोनू की समझ में कुछ न आया। उसने दूर एक बादामी कागज देखा और दौड़ कर उसे उठा लिया। फिर रमा की गोद में सिमट कर बैठ गया और कागज को जमीन पर फैलाते हुए बोला, ‘‘तुम लुको मां, मैं अभी नाव बनाता हूँ.....।’’
रमा एक बार फिर स्तब्ध सी 5 महीने पहले दुर्घटना में उसे छोड़ गये रौशन की याद में घिर गई.....।

‘‘हाथ से सिगरेट छूट गई......’’

‘‘हाथ से सिगरेट छूट गई......’’
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‘‘अठारह वर्ष से कम उम्र के बच्चों को तम्बाकू या तम्बाकू से बने पदार्थ बेचना दंडनीय अपराध है।’’शहर में पान की दुकानों पर यह तख़्ती लगी थी। स्कूल के छोकरे सिगरेट पीना चाह रहे थे।
‘‘ओए, जा ले आ सिगरेट।’’
‘‘मैं नहीं जाता। पान वाला नहीं देगा।’’
‘‘अबे, कह देना, पापा ने मँगाई है।’’
‘‘स्कूल में.....?’’
‘‘चलो, शाम को नुक्कड़ पर मिलेंगे।’’
‘‘ठीक है।’’
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‘‘भइया, एक सिगरेट का पैकेट देना। हाँ, गुटखा भी।’’
‘‘बच्चे, तुम तो बहुत छोटे हो। तुम्हें नहीं मिल सकता।’’
‘‘अंकल, मेरे पापा ने मंगवाई है। ये लो पैसे।’’
‘‘ओह! तुम तो शुक्ला साब के बेटे हो।’’
पान वाले ने सहर्ष उसे सामान दे दिया।
कुछ दिन बाद....।
‘‘राम–राम शुक्ला जी।’’
‘‘लीजिए साब। आजकल बेटे से बहुत सिगरेट मँगाने लगे हो। हर रोज शाम को आ जाता है।’’
सुनकर शुक्ला साब के हाथ से सिगरेट छूट गई......।

हाथ एक भी गुब्बारा नहीं लगा..........

हाथ एक भी गुब्बारा नहीं लगा..........मगर क्यूं.....
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गैस भरे गुब्बारे लिए फुटपाथ पर खरीददरों की प्रतीक्षा से ऊब कर ऊंघने लगना रामदीन की आदत बन चुकी थी। अर्धचेतनावस्था में रंग–बिरंगे सपनों को गुब्बारों की शक्ल में उड़ते देखता उन्हें पकड़ने की कोशिश, वह हमेशा करता।
कभी–कभी सपनों के किसी गुब्बारे के नीचे लटकती डोर उसके हाथों के पास से गुजरती महसूस होती, पर जैसे ही वह उन्हें पकड़ने को होता, गुब्बारे ऊपर. .... . .... और ऊपर उठ जाते, फिर किसी खरीददार की आवाज से उसकी चेतना यथार्थ में लौट आती। यूं लगता मानों सपने सिमट जा रहे हैं, सिर्फ़ गुब्बारे ही बचते थे।
चालीस सालों में रामदीन अपने सपनों में उड़ते वे एक भी गुब्बारे नहीं पकड़ पाया।
सचमुच रामदीन के जैसे कई सपने तलाशने वाले चेहरे जिंदगी के झंझावातों में कुछ इस तरह खो गये हैं कि वर्षों बाद भी उनके हाथ एक भी गुब्बारा नहीं लगा..........मगर क्यूं.....
अचानक पास ही बज रहे संगीत से रामदीन फिर झुंझला कर जाग गया, गीत के बोल थे - सारे सपने कहीं खो गये, जाने हम क्या से हो गये. .... . ....।
कभी अपने लिये गुब्बारे का सपना देखने वाले रामदीन का जवान बेटा दीपू फैक्ट्री के शोर में अब सपनों की धुंध बनाता है और उसके धुएं में सपनों के चेहरे तलाशता है.....।
रामदीन को याद आता है, कि उसके बेटे दीपू ने कभी गुब्बारे के लिए जिद नहीं की थी.....। यकीनन रामदीन के जैसे वह भी सपनों में संतोष करना सीख गया था........।

अँधेरे के खिलाफ ........

अँधेरे के खिलाफ
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पत्नी की बीमारी, भ्रष्टाचार के मिथ्या आरोप तथा महीनों से रुका वेतन........इन तमाम झंझावातों ने अनूप को झकझोर कर रखा दिया था तभी तो उसका मनोबल टूटने की चरम तक पहुँचा।

बहुत सोच–विचार के बाद आज अनूप जहरीली गोलियाँ ले आया, जिन्हें वह दूध में मिला कर पत्नी रमा और बिटिया अनु के साथ पी जाने की ठान बैठा था। उसे सहसा रमा और अनु पर तरस आने लगा जो उसके खूंखार इरादों से अनजान थीं।

रात के साढ़े नौ बजने को थे। बारिश–बिजली और तेज हवाओं से वातावरण बोझिल हो चला था। बस कुछ समय और, फिर तमाम चिंताओं–परेशानियों से सदा के लिए मुक्ति. .... . ....। उसने सोचा और दूध गैस पर गर्म करने के लिए रख दिया। शक्कर के साथ गोलियाँ भी दूध में डाल दीं तभी अचानक लाइट गुल हो गई।

‘शिट–शिट’ अनूप ने झल्लाते हुए मोमबत्ती खोजी और जलाई जो हवा के कारण तत्काल बुझ गई। उसने फिर जलाई, इस बार अनु, जो पास ही खड़ी थी, अपने नन्हें हाथों की ओट कर खिड़की से आ रही तेज हवाओं से काँपती मोमबत्ती को बुझने–से बचाने की भरसक कोशिश में लग गई। कुछ क्षणों तक वह अपलक यह दृश्य देखता रहा फिर अँधेरे के खिलाफ जंग में वह भी शामिल हो गया और उसने जहरीला दूध सिंक में उंड़ेल कर नल चालू कर दिया......।
चंद लाईनें सहज ही उसकी जुबान पर आ गयीं.....
‘सबसे छुपा के दर्द, जो वो मुस्कुरा दिया।
उसकी हंसी ने तो आज मुझे रूला दिया।
लहजे से उठ रहा था, हर एक दर्द का धुआं।
चेहरा बता रहा था कि कुछ गवां दिया।
आवाज में ठहराव था, आंखों में नमी थी।
और कह रहा था कि मैंने सबकुछ भूला दिया।।’

शनिवार, 16 जुलाई 2011

God li Pooja Pe Julm Ki Dastaan.......16 july 2011

हाउसिंग बोर्ड कालोनी में दत्ता परिवार द्वारा 7 वर्षीय मासूम बच्ची से पिछले दो वर्षों से अमानवीय ढंग से घरेलु काम काज करवाया जाता रहा है। दो वर्षों से यह बच्ची बंधुआ मजदूर की तरह इस परिवार के दबाव में खटती रही है। चार दिन पहले दत्ता परिवार के चंगुल से भाग निकली इस बच्ची ने एक कबाड़ी के घर घटना का वृतान्त बता शरण ले रखी है। दो दिन पहले कबाड़ी महबूब खान बच्ची को ले जामुल थाना पहुँचा था लेकिन पुलिस ने उसे पूजा को स्वयं के संरक्षण में रखने की हिदायत दे दी। सम्पर्क करने पर थाना प्रभारी आर पी शर्मा ने बताया कि पूजा ने बयान दिया है कि दत्ता परिवार उसकी इच्छा के विपरीत घरेलु काम करवाया, विरोध करने पर उससे मारपीट करते थे।
औद्योगिक क्षेत्र हाउसिंग बोर्ड में पिछले दो वर्ष से गोद लेने के बाद एक परिवार की लगातार यातना सहने वाली बंधक बनी 7 वर्षीय बच्ची ने भाग कर कालोनी के ही अन्य लोगों के पास शरण ली है। पूजा नाम की इस बच्ची ने बताया कि उसका पिता भगत जेल में बंद है जबकि मां अमरीका बाई मजदूरी का काम करती है। वह अपनी मां व भाई जितेन्द्र तथा बहन पूनम के साथ डंगनिया रायपुर में रहती थी। दो साल पहले हाउसिंग बोर्ड निवासी एस पी दत्ता परिवार ने उसकी मां से पूजा को मांगा था। इस दौरान दत्ता परिवार ने उसकी मां से कहा था कि वो पूजा को बेटी की तरह पालेंगे, उसे पढ़ायेंगे लिखायेंगे व उसकी शादी का पूरा खर्च उठायेंगे।
पूजा का कहना है कि वह मां को छोड़ नहीं आना चाहती थी लेकिन जबरन मां ने उसे दत्ता परिवार के साथ भेज दिया। दरअसल दत्ता परिवार बेटी नहीं एक नौकरानी चाहता था। जब भी दत्ता परिवार बाहर घूमने जाता पूजा को बाथरूम के अंदर घंटों बंद रखा जाता था। घर के मुख्य दरवाजे पर हमेशा ताला जड़े होने के कारण पूजा न तो बाहर निकल पाती और न ही पड़ोसी ही जान पाये कि दत्ता परिवार ने पूजा को गोद लिया है। वह तो उसे घर की सफाई, झाड़ू पोछा करते कभी क भार आंगन में देखा करते थे। पूजा 12 जुलाई की दोपहर पूजा अचानक एस पी दत्ता के एमआईजी 2870 स्थित निवास का गेट फांद कर भाग निकली। यहां से 200 मीटर की दूरी पर कालीबाड़ी चौक पहुँचने के बाद एक जूस दुकान में संचालक से उसने भूख का हवाला देते हुए खाने को मांगा। आस-पास के लोगों ने उसे समीप के ही कबाड़ी महबूब खान के घर भेज दिया। महबूब खान ने बताया कि आस-पास पूछताछ करने के बाद भी पूजा का पता नहीं लग पाया। कबाड़ी ने परिजनों के इंतजार में उसे अपने घर आसरा दिया। महबूब की पत्नी बीना रानी मन्ना ने बताया कि दो दिन बाद वे जामुल थाना लेकर बच्ची को गये तब पूजा का बयान लेने के बाद पुलिस ने पूजा को पुन: कबाड़ी महबूब के घर फिलहाल रखने कहा। जामुल थाना प्रभारी आर पी शर्मा ने बताया कि बच्ची को दत्ता परिवार ने गोद लिया है, इसलिये अग्रिम कार्रवाई के लिये बच्ची की मां अमरीका बाई को बुलवाया गया है।

00 घर के कचरे में पूजा ढूंढती थी खाना.......
पालन-पोषण की पूरी जिम्मेदारी लेने वाले दत्ता परिवार के चंगुल से भागी पूजा के संबंध में निगम की ओर से घर-घर क चरा एकत्रित करने वाले रिक्शा चालक ने बताया कि वह रोज उसकी गाड़ी तक कचरा देने आती थी। कचरे की पॉलिथीन से एक दिन कुछ निकाल कर खाने का प्रयास कर रही पूजा को उसने जब टोका तो पूजा ने उसे भूख का हवाला दिया था। पूजा ने बताया कि दत्ता परिवार उसे भर पेट खाना नहीं देता था। सुबह चार बजे उठने के बाद नन्ही पूजा दत्ता के 2400 वर्गफुट में बने घर की सफाई करती थी, बरतन भी सुबह ही मांजना पड़ता था। दो वर्षों में पूजा को सिर्फ एक कपड़ा दिया गया था जिसे वह 24 घंटे पहनती थी। पूजा ने बताया कि उसे एस पी दत्ता, उनकी पत्नी दीपाली दत्ता और 26 वर्षीय बेटा अमरजीत दत्ता हमेशा काम क रवाते तथा देर होने पर पिटाई करते थे। पूजा बताती है कि सुबह 4 बजे से देर रात तक वह सिर्फ और सिर्फ काम क रती थी। रात में बचे जूठन से पेट भरने के बाद उसे बरतन मांजना पड़ता और पूरे घर की सुबह शाम सफाई करनी पड़ती थी। सप्ताह में दो दिन कार की सफाई भी पूजा से करवाई जाती थी।

00 हाथ-पैर की उंगलियां सडऩे लगी थीं.................
जब पूजा से बात की तो वह अपना दर्द बताते बताते फूट फूट कर रो पड़ती थी। उसका कहना है कि उसे एक डंडे से अक्सर पीटा जाता था। उसके हाथ व पैर की उंगलियां लगातार पानी में रहने के कारण सडऩे लगी थीं। दर्द होने पर जब वह काम से इंकार करती तो उसे पीटा जाता और बाथरूम में बंद कर दिया जाता। घंटों बंद रहने के बाद भूख के कारण वह पुन: काम में जुट जाती तब उसे खाना दिया जाता था। पूजा अपनी मां के पास वापस जाना चाहती है, दत्ता परिवार की पिटाई का डर उसके चेहरे पर अब भी देखा जा सकता है। वह बताती है कि घर से बाहर निकलने की उस पर खास पाबंदी थी। एक बार वह घर से निकल पड़ोस में पहुँची थी, बगल में अंटी से बात करने के बाद अमरजीत से उसे वापस घर बुलाया और पूछताछ के बाद उसे पीटने के बाद दिन भर खाना नहीं दिया गया था।

00 नहीं कर सकते पालन-दत्ता परिवार से खतरा..........
जामुल थाना द्वारा कबाड़ी पर थोप दी गई यह बच्ची महबूब खान व उसकी पत्नी के लिये परेशानी का ही सबब बन गई है। बीना रानी ने बताया कि पालन-पोषण जैसे-तैसे कर सकते हैं लेकिन कल देर रात एस पी दत्ता तीन लोगों के साथ उसके घर पहुँचे और बच्ची को हवाले करने की धमकी देने लगे। महबूब खान ने कहा कि हम अगर बच्ची को रखते भी हैं तो दत्ता परिवार से वे नहीं लड़ सकते। खान के मुताबिक राज्य शासन या जिला प्रशासन को यह सोचना चाहिए कि बच्ची कहां रहे, उन्होंने तो बस सभ्य नागरिक होने का फर्ज निभाते हुए पुलिस को खबर दिया और तीन दिन तक बच्ची को रखा। बीना ने बताया कि बच्ची बुरी तरह डरी हुई है, हमने उसके हाथ-पांव की सड़ रही उंगलियों के लिये दवा लाई, उसे कपड़े दिये तब कहीं जाकर उसके मुंह से शब्द फूटने लगे हैं।

00 कालोनीवासियों में रोष-घेरा जामुल थाना
घटना की जानकारी लगते ही दोपहर 12 बजे हाऊसिंग बोर्ड कालोनीवासियों ने पूजा को न्याय दिलाने और दत्ता परिवार के चंगुल से बचाने के लिये जामुल थाना घेर दिया है। प्रदर्शनकारियों का क हना है कि जामुल पुलिस ने इस मामले में ढिलाई बरती और बच्ची की सुरक्षा का इंतजाम करने की बजाय उसे पुन: कबाड़ी के हवाले कर दिया जबकि दत्ता परिवार पर अपराध पंजीबद्ध कर पूजा के पालन-पोषण की जवाबदारी तय करना था। प्रदर्शन के दौरान पूजा की मां अमरीका बाई को थाना बुलवाया गया है। दत्ता परिवार के घर पहुँचे छत्तीसगढ़ संवाददाता को श्रीमती दीपाली दत्ता व उनके बेटे अमरजीत ने कुछ भी बताने से इंकार कर दिया है। उन्होंने कहा कि एस पी दत्ता शाम को घर लौटेंगे तभी आकर जानकारी ले सकते हैं, ऐसा कह दत्ता परिवार ने दरवाजा बंद कर दिया।
काफी प्रयास के बाद एस पी दत्ता से मोबाइल पर सम्पर्क होने पर बताया कि बच्ची का बयान सरासर झूठा है और कुछ ज्यादा इस मामले पर नहीं कहूंगा। उन्होंने कहा कि वे बाहर हैं तथा शाम तक भिलाई वापस आने के बाद ही कुछ बता सकेंगे। खबर यह भी है कि दत्ता कल रात कबाड़ी के घर वकील लेकर पहुँचे थे तथा जबरन बच्ची को सामने लाने की मांग करते रहे। जब महबूब खान ने जामुल पुलिस को खबर की तो पुलिस ने उन्हें दूसरे दिन बच्ची की मां को लेक र आने कहा है, उसके बयान के बाद ही पूजा दत्ता परिवार के हवाले की जायेगी। एस पी दत्ता पूजा की मां अमरीका बाई को लेने सुबह से ही रायपुर निकल गये हैं।

-- संतोष मिश्रा -- (सिटी चीफ - छत्तीसगढ़)

शनिवार, 9 जुलाई 2011

“वह चुपचाप चलता रहा, चलता रहा..................”

“वह चुपचाप चलता रहा, चलता रहा..................”

उस दिन मां के साथ जब मामूली–सी बात पर उसका झगड़ा हो गया तो वह बिना नाश्ता किए ही ड्यूटी पर जाने के लिए बस–अड्डे की ओर चल पड़ा ।

घर से निकलते वक़्त मां के यह बोल उसे ख़ंजर की तरह चुभे, “ तेरी आस में तो मैने तेरे अड़ियल और नशेबाज बाप के साथ अपनी सारी उम्र गाल दी, कि चलो बेटा बना रहे, और दुष्ट तू भी…।” मां के शेष बोल आँसुओं में भीग कर रह गए । वह जा़र–ज़ार रोने लगी।

घर से बस–अड्डे तक का सफर तय करते हुए उसे बार–बार यही ख्याल आता रहा कि वह मां के कहे बोल नहीं बल्कि मां द्वारा सृजित एक–एक अरमान को पांवों तले रौंदता चला जा रहा है । पर वह चुपचाप चलता रहा, चलता रहा।

बस–अड्डे पर पहुंचकर जब वह अपनी बस की ओर बढ़ा तो देखा, मां हाथ में रोटी वाला डिब्बा लिए उसकी बस के आगे खड़ी थी।

बेटे को देखते ही मां ने रोटी वाला डिब्बा उसकी ओर बढ़ा दिया। मां के खामोश होंठ जैसे आंखों पर लग गए हों । एकाएक अनेक आंसू मां की पलकों का साथ छोड़ गए ।

मां को ऐसे रोते देख कर उससे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया गया और अगले ही पल वह मां के चरणों में था ।

‘‘ऐ, मुझे मत पकड़ों। तुम्हारे कोमल हाथ गन्दे हो जाएगे।’’

वह खुशनुमा सुबह थी। पूरब की लाली और मन्द हवा में झूमते वृक्ष उसे अच्छे लगे। उसने काले सफेद बादलों को देखा और इठलाते हुए आगे बढ़ गया । तभी उसे लगा कि बादलों के साथ–साथ वह भी उड़ रहा है। धूल का उड़ना उसे अच्छा लगा। उसे कलरव करते पक्षी और रंग–बिरंगे फूलों के इर्द–गिर्द इतराती तितलियां अधिक मोहक लगीं। आज उसने अधमरे, कचरे–से–कुत्ते को भी नहीं मारा।

फिर उसने खुद को उस खेल के मैदान में पाया। वह खुशी से तालियां बजाने लगा। तभी उसे गेंद आकर लगी। वह धन्य हो गया। आज पहली बार उसने क्रिकेट की गेंद को छुआ था।

सुन्दर झील को देखते हुए वह उस रेलवे फाटक के पास पहुंचा। आज उसकी प्रसन्नता का कोई ओर–छोर नहीं था उस छोटी–सी रेलगाड़ी को इतने करीब से गुजरते देखकर। उसमें सवार यात्रियों की वह कल्पना करने लगा। तभी उसे लगा कि उसने धुएं को पकड़ लिया है। धुंए ने उससे कहा, ‘‘ऐ, मुझे मत पकड़ों। तुम्हारे कोमल हाथ गन्दे हो जाएगे।’’

उसने अपने काले और खुरदरे हाथों को देखा। तभी किसी की पुकार सुन उसकी तन्द्रा टूटी। दूर ईट की भट्ठी से उसका बाप उसे बुला रहा था।

रोटी.........?

रोटी.........?

चार वर्ष का लड़का सड़क किनारे बैठा लम्बी सिसकियों के साथ रो रहा था। उसके आँसुओं ने उसके गंदे चेहरे पर धारियाँ बना दी थी। लड़का कुछ देर रुकता और फिर रोने लगता।

एक व्यक्ति बहुत देर से रोते हुए लड़के को देख रहा था। उसके अंदर इच्छा हुई कि जाने आखिर यह लड़का इतनी देर से रो क्यों रहा है।

व्यक्ति ने लड़के वे समीप आकर पूछा–क्यों रो रहा है तू क्या हुआ तुझे, लड़का सिसकते -सिसकते बोला भूख लगी है।’’ व्यक्ति आश्चर्य से बोला भूख लगी हैं। अरे तेरे हाथ में तो रोटी है खाता क्यों नहीं।
लड़के ने व्यक्ति की ओर देखते हुए कहा ‘‘खा लूँगा तो खत्म हो जाएगी।’’

मेरी टिप सार्थक हो गई...................

हमारी गाड़ी मध्यम रफ्तार से चली जा रही थी। छोटे–छोटे कस्बों से बढ़ते हुए। जब चाय पीने की तलब हुई तो क़स्बे से बाहर एक छोटे से ढाबे पर गाड़ी रुकवाई गई। वहां एक गुमटी पर मालिक बैठा था। सामने चार–पांच मर्तवान में बिस्कुट, नानखटाई वगै़रह रखे थे और कुछ बेंचें पड़ी थीं।

वेटर के नाम पर एक दस–ग्यारह वर्ष का लड़का था। उसे तुरंत अच्छी सी चाय बनाने के लिए बोला गया और हम लोगों ने अपना खाना–पीने का सामान निकाल लिया।
चाय से फ़ारिग होकर हमने पैसे पूछे तो लड़के ने नौ रुपए बताए। हमने दस रूपए दिए।

लड़का एक रुपया वापस लेकर आया। ऐसी जगह पर चूंकि टिप का प्रचलन नहीं होता है फिर भी आदत के मुताबिक़ वो एक रूपया मैंने उस लड़के को वापस रखने को दे दिए। लड़का कुछ समझ न सका। वह रूपया जाकर अपने मालिक को देने लगा। मालिक ने हम लोगों की ओर देखते हुए कहा कि ‘रख’लो ये तुम्हारा ही है।’

लड़के ने तुरंत उत्साहित होकर सामने रखे मर्तबान में से कुछ बिस्कुट निकाले और रुपया मालिक को देकर बेंच पर बैठकर बिस्कुट खाने लगा।

उसे बिस्कुट खाता देखकर मुझे लगा कि मेरी टिप सार्थक हो गई।

‘सवारी बैठी है’

‘सवारी बैठी है’

बस काफी भर चुकी थी। पर अभी भी एक सीट खाली पड़ी थी।
कई सवारियों ने वहाँ बैठना चाहा, पर साथ बैठा बुजुर्ग ‘सवारी बैठी है’ कहकर सिर हिला देता।
बुजुर्ग ने वहाँ एक झोला रखा हुआ था।

बस चलने तक किसी ने वहाँ बैठने की ज़िद न की। लेकिन जब बस चल पड़ी, तब कुछेक ने बैठने की ज़िद पकड़ ली।

बुज़ुर्ग का एक ही जवाब था कि ‘सवारी बैठी है।’

जब कोई पूछता कि सवारी कहाँ है, तो वह झोले की तरफ इशारा कर देता। असली बात का किसी को पता नहीं लग रहा था।

कुछ सवारियाँ अनाप–शनाप बोलने लगीं, बैठे हुए कुछ लोगों ने खाली सीट पर सवारी बैठाने की बुज़ुर्ग से विनती की।
बुज़ुर्ग ने फिर वही शब्द ‘सवारी बैठी है’ दोहरा दिए।

बात बढ़ गई थी। सवारियों ने ज़बर्दस्ती बैठने की कोशिश की, पर बुजुर्ग ने उन्हें आराम से मना कर दिया। वह कहीं गहरे में डूबा था। हारकर सवारियों ने कंडक्टर को सारी बात बताई।

बुजुर्ग ने ढीले हाथों से जेब में से दो टिकट निकालकर कंडक्टर को पकड़ा दिए।
आँसू पोंछते हुए उसने कहा, ‘‘दूसरा टिकट मेरे जीवन–साथी का है। वह अब इस दुनिया में नहीं रही। ये उसके फूल हैं......यह जीवनसाथी के साथ मेरा आखिरी सफर है।’’.....

“वह चुपचाप चलता रहा, चलता रहा..................”

“वह चुपचाप चलता रहा, चलता रहा..................”

उस दिन मां के साथ जब मामूली–सी बात पर उसका झगड़ा हो गया तो वह बिना नाश्ता किए ही ड्यूटी पर जाने के लिए बस–अड्डे की ओर चल पड़ा ।

घर से निकलते वक़्त मां के यह बोल उसे ख़ंजर की तरह चुभे, “ तेरी आस में तो मैने तेरे अड़ियल और नशेबाज बाप के साथ अपनी सारी उम्र गाल दी, कि चलो बेटा बना रहे, और दुष्ट तू भी…।”
मां के शेष बोल आँसुओं में भीग कर रह गए । वह जा़र–ज़ार रोने लगी।

घर से बस–अड्डे तक का सफर तय करते हुए उसे बार–बार यही ख्याल आता रहा कि वह मां के कहे बोल नहीं बल्कि मां द्वारा सृजित एक–एक अरमान को पांवों तले रौंदता चला जा रहा है । पर वह चुपचाप चलता रहा, चलता रहा।

बस–अड्डे पर पहुंचकर जब वह अपनी बस की ओर बढ़ा तो देखा, मां हाथ में रोटी वाला डिब्बा लिए उसकी बस के आगे खड़ी थी।

बेटे को देखते ही मां ने रोटी वाला डिब्बा उसकी ओर बढ़ा दिया। मां के खामोश होंठ जैसे आंखों पर लग गए हों । एकाएक अनेक आंसू मां की पलकों का साथ छोड़ गए ।

मां को ऐसे रोते देख कर उससे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया गया और अगले ही पल वह मां के चरणों में था ।

बुधवार, 29 जून 2011

क्या शंकर गुहा नियोगी के हत्यारों का सचमुच होगा पर्दाफाश........?


क्या शंकर गुहा नियोगी के हत्यारों का सचमुच होगा पर्दाफाश........? 

उच्चतम न्यायालय से रिहा हो शंकर गुहा नियोगी हत्याकांड का एक प्रमुख आरोपी चंद्रकांत शाह बीस वर्षों बाद अब हत्याकांड से जुड़े असली तथ्यों को उजागर करना चाहता है, उसका कहना है कि मुझे और पल्टन मल्लाह को हत्याकांड में सिर्फ बलि का बकरा बनाया गया जबकि नियोगी की हत्या में कुछ बड़े उद्योगपति, शराब माफिया व उस दौर के राजनीतिज्ञ सभी शामिल थे। चंद महीने पहले अन्ना हजारे के आंदोलन से प्रभावित चंद्रकांत शाह ने खुले आम ऐलान कर दिया है कि नियोगी हत्याकांड में संलिप्त लोगों को अब वह नहीं छोड़ेगा, केस को री-ओपन करवाने के प्रयास में लगे चंद्रकांत ने इस मामले को लेकर स्वामी अग्निवेश तक गुहार लगा दी है, शाह का कहना है कि वो नियोगी को देवता की तरह पूजने वाले संगठन छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा को भी इस न्याय की लड़ाई में शामिल करने की मंशा रखता है।
 
00 सच्ची श्रद्धांजलि की चाहत रखता हूं-चंद्रकांत
चर्चा में चंद्रकांत शाह ने जो कुछ तथ्य सामने रखे हैं, अगर उनमें सच्चाई है तो यह मामला एक बार फिर जबर्दश्त रूप ग्रहण करेगा। चंद्रकांत के ऐलान से एक बार फिर श्रमिक संगठनों में नियोगी हत्याकांड के आरोपियों को सजा दिलवाने की मंशा उफान पर है। चंद्रकांत ने कहा है कि स्थानीय पुलिस ने सबसे पहले गलती की और चंद लोगों को बेवजह इस मामले में घसीट लिया और जो वास्तविक रूप से नियोगी की हत्या की नियत से बैठकें करते रहे, प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से शामिल हुए उन्हें या तो बड़ी आसानी से बाहर निकाल लिया गया या फिर उनके नाम पर चर्चा करना स्थानीय पुलिस प्रशासन से उचित नहीं समझा। हत्याकांड में आरोपी बनाये गये चंद्रकांत शाह चार वर्षों की सजा का दंश अब भी नहीं भूला सके हैं। उनका कहना है कि स्थानीय पुलिस द्वारा बनाये गये खाका को ही आधार मान सीबीआई उसी ढर्रे पर काम करती रही नतीजतन नियोगी के वास्तविक हत्यारे आज भी खूली हवा में सांस ले रहे हैं, ऐशो-आराम का जीवन व्यतीत करते हुए समाज सेवक की भूमिका तक बना बैठे हैं, उन सभी लोगों को बेनकाब कर सजा दिलवाना ही शंकर गुहा नियोगी के प्रति उनकी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। दिल्ली में मौजूद श्री शाह ने बताया कि सीनियर वकीलों से वे इस संबंध में चर्चा कर चुके हैं। स्वामी अग्निवेश से उन्हें फिलहाल कोई जवाब नहीं मिला है। कुछ विशेषज्ञों ने चर्चा में उन्हें कहा है कि पहले इस मामले में जनसमर्थन जुटा कर लोगों में जागरूकता पैदा करें, उसके बाद कानूनी लड़ाई प्रारम्भ की जायेगी।
 
00 हवाई महल से नहीं निकल सकी सीबीआई
जहां तक निचली अदालतों की बात की जाये, नियोगी हत्याकांड में बनाये गये सभी आरोपी एक के बाद एक बरी होते रहे अंत में उच्चतम न्यायालय ने केवल पल्टन मल्लाह को ही सजा का पात्र माना। चंद्रकांत शाह का कहना है कि नियोगी हत्याकांड में दोषी पाया गया पल्टन एक मोहरा है, जबकि उसके पीछे छिप कर वार करने वाले सारे लोग अब भी आजाद हैं, उनके खिलाफ ठोस सबूत का दावा भी चंद्रकांत करते हुए कहते हैं कि सीबीआई जांच अफसरों की भूमिका भी इस केस में संदेह के दायरे में थी। उन्होंने कहा कि स्थानीय पुलिस प्रशासन ने जो कहानी गढ़ हवाई महल तैयार किया था उसी में सीबीआई उड़ती रही। हत्याकांड में नाम लाने व हटाने की धौंस दे कर पुलिस प्रशासन व अन्य जांच एजेंसियों ने अपनी जेबें ब्लेकमेलर की भूमिका में रहते हुए भरी हैं।
नियोगी हत्याकांड के बीस वर्ष बाद अचानक चंद्रकांत का सामने आना और इस तरह का ऐलान एक बार फिर भिलाई, रायपुर के उद्योग जगत में हलचलें बढ़ा गया है। बरी होने के चार वर्ष बाद चंद्रकांत के सामने आने के सवाल पर उनका जवाब है कि वे उस समय अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों में फंसे हुए थे। नियोगी हत्याकांड का आरोपी बना दिये जाने से साथी उद्योगपति, व्यावसायी, दोस्त, रिश्तेदार सबके सब मेरे परिवार व मुझसे किनारा कर चुके थे। बरी होने के बाद भी मेरा नाम सुन कर लोग आसानी से यह दुहरा देते हैं कि नियोगी हत्याकांड वाले चंद्रकांत शाह.........? शाह का कहना है कि नियोगी जब औद्योगिक क्षेत्र में उद्योगपतियों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे, अनेक बड़े-छोटे उद्योगों में हड़ताल होने लगी थी तब भी उनके द्वारा संचालित ओसवाल उद्योग के श्रमिक पूरी तरह संतुष्ट थे, उनकी फर्म में न तो कभी हड़ताल की नौबत आई और न ही तालाबंदी की। ऐसी स्थिति में वे बार-बार ये कहते रहे कि नियोगी की हत्या करवाने के पीछे मेरे पास कोई वजह ही नहीं थी फिर मुझे क्यों फंसाया जा रहा है, लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी।

00 अब सक्षम हूं इसलिये अवश्य खोलूंगा राज
शाह कहते हैं कि अनेक दरवाजे पर खुद को बेकसूर साबित करने की लगने वाली गुहार के बदले में मुझे खुले तौर पर धमकियां मिलने लगीं कि चुप न रहने पर परिवार को जान से मार देंगे। चूंकि उन दिनों बच्चे छोटे थे, मुझे इस केस में उलझाने के बाद परिवार पूरी तरह टूट सा गया था, इसलिये सब कुछ ईश्वर के हाथ छोड़ कर हमने चुप्पी साधे रखी, लाख कष्ट व इल्जाम का दंश झेलते हुए अंतत: सत्य की जीत हुई। सुप्रीम कोर्ट से बरी होने के बाद मैंने परिवार की सारी जिम्मेदारियां सम्हाली। बच्चों की शादियां की, अपने बंद हो चुके उद्योग को दूसरे शहर से प्रारम्भ कर एक मुकाम हासिल करने के बाद मैं अपने खिलाफ हुए जुल्म और स्व. शंकर गुहा नियोगी के हत्यारों को सजा दिलाने कमर कस तैयार हूँ।
एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि अन्ना हजारे के आंदोलन में जिस प्रकार खर्च और फायनेंस करने की बातें सामने आईं थी वैसा मेरे साथ नहीं होगा, पूरे आंदोलन में मैं स्वयं खर्च करने सक्षम हूं। भिलाई के एसीसी में स्थित नियोगी चौराहे से वे जल्द जनआंदोलन शुरू करेंगे और उसी मंच से उन सारे लोगों को बेनकाब करेंगे जो कि नियोगी के वास्तविक हत्यारे थे। उन्होंने कहा कि अब न तो खुद को खोने का भय है और न ही परिवार के कमजोर होने की अड़चन। अब तो सीधी लड़ाई जनता के सहयोग से वे लड़ेंगे और नियोगी हत्याकांड की बंद फाईल फिर से खुलवा कर वास्तविक हत्यारों को सजा दिलवाना ही एकमात्र उनका मकसद है। लगातार दिल्ली में रूक कर स्वामी अग्निवेश व अन्ना हजारे तक वे अपनी गुहार लगा चुके हैं। उनका कहना है कि वहां से हरी झण्डी मिलते ही वे जनसहयोग के लिये भिलाई में अपील कर और लोगों को साथ जोड़ इसे एक आंदोलन का रूप देंगे।
00 पहल करेंगे तो अवश्य मुक्ति मोर्चा साथ देगा-बागड़े
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष भीमराव बागड़े ने बताया कि चंद्रकांत शाह द्वारा फिलहाल उनसे इस संबंध में कोई चर्चा नहीं हुई है। अगर वे पहल करते हैं और मुक्ति मोर्चा की जरूरत महसूस करेंगे तो हम सड़क की लड़ाई में इसलिये उनका साथ देंगे क्योंकि ये मामला हमारे नेता शंकर गुहा नियोगी की हत्या का है। श्री बागड़े ने कहा कि न्यायालय के फैसले से मुक्ति मोर्चा बुरी तरह आहत था, इसलिये केस री-ओपन करवाने के प्रयास मोर्चा ने किया था जो कि विफल रहा। श्री बागड़े कहते हैं कि मुक्ति मोर्चा हमेशा कहता रहा है कि नियोगी हत्याकांड में भाड़े के हत्यारे और कुछ मोहरों को ही पकड़ा गया था लेकिन हत्या की साजिश रचने वाले अभी भी खुले घूम रहे हैं। उन्होंने बताया कि मुक्ति मोर्चा चंद्रकांत शाह को हत्याकांड में फंसाया गया मोहरा ही मानता है, खुले तौर पर हम शुरू से कहते आ रहे हैं कि नियोगी हत्याकांड में कैलाश पति केडिया, मूलचंद शाह जैसे कुछ अन्य लोग सीधे तौर पर गुनहगार हैं लेकिन न तो पुलिस प्रशासन से हमारी सुनी और न ही सीबीआई। चंद्रकांत शाह की पहल का स्वागत करते हुए श्री बागड़े कहते हैं कि सचमुच जागरूकता जरूरी है, जनजागरण से ही नियोगी के वास्तविक हत्यारों को सजा हो सकती है। चंद्रकांत शाह से जब सवाल किया गया कि उन्होंने मुक्ति मोर्चा को आंदोलन में जोडऩे के लिये कोई पहल की है, तो उन्होंने बताया कि चूंकि मुक्ति मोर्चा के तीन से चार टूकड़े हो गये हैं इसलिये वे नहीं जानते कि किससे चर्चा की जाये। दिल्ली से लौटने के बाद वे जल्द मुक्ति मोर्चा के सभी गुटों से बात कर जनजागरण अभियान शुरू करेंगे।
 
00 फैसलों से असंतुष्ट ही रहा नियोगी परिवार..............
निचली अदालतों से उच्चतम न्यायालय तक नियोगी हत्याकांड में कुल छ: आरोपी बनाये गये थे जिनमें से एक के बाद एक पांच आरोपियों को न्यायालय ने बरी कर दिया था। लगभग 14 से 15 वर्ष तक न्याय व्यवस्था की राह ताक रहे नियोगी के परिवार और उन्हें आदर्श मान समर्पित भाव से अलग-अलग संगठन चला रहे मुक्ति मोर्चा के नेता भी एक हद तक फैसले के बाद निराश ही दिखाई पड़े। 27 सितम्बर 1991 को शंकर गुहा नियोगी की गोली मार हत्या कर दी गई थी। बरसों तक लम्बा खिंचता गया यह मामला शांतिपूर्वक इंतजार के बाद भी नियोगी परिवार को ढाढस नहीं बंधा पाया।
स्व. नियोगी की पत्नी आशा ने फैसला आने के बाद ही कहा था कि अदालत के फैसले से उन्हें मायूसी ही मिली है क्योंकि असली कातिल छोड़ दिये गये। राजधानी से 130 किलोमीटर दूर दल्ली राजहरा इलाके में रहने वाली आशा नियोगी ने कहा था कि उन्हें इस बात की खुशी है कि भाड़े के हत्यारे पल्टन मल्लाह को उम्र कैद की सजा मिली लेकिन हत्या की साजिश रचने वाले लोग आज भी चैन की जिंदगी जी रहे हैं, यह बड़े ही दु:ख का विषय है। नियोगी का बेटा जीत गुहा और बेटी मुक्ति भी अदालत के फैसले से संतुष्ट नहीं थे। हालांकि जीत वर्तमान में छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की कमान सम्हालने की बजाय जन मुक्ति मोर्चा के प्रमुख हैं फिर भी नियोगी की हत्या करने व करवाने वालों के खिलाफ उनकी लड़ाई जारी है। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा जो आज कई धड़ों में बंट गया है, उसके सभी धड़े चाहे वो जनक ठाकुर हों या फिर भीम राव बागड़े, सब लोग नियोगी के हत्यारों को कड़ी सजा दिलाने की चाहत रखते हैं। ऐसी स्थिति में चंद्रकांत का खुल कर सामने आना क्या इन लोगों के लिये सम्बल बनेगा, यह समय के गर्भ में छिपा जरूर है लेकिन इसे लेकर चर्चाओं का बाजार गरमाने लगा है।
 
00 नियोगी मरा नहीं करते, लड़ाई जारी है...............
लेबर लीडर शंकर गुहा नियोगी आज भी उन सभी श्रमिकों के लिये देवता का ही रूप हैं जो कि उद्योगपतियों के शोषण के शिकार व अधिकार से वंचित मजदूरों के लिये बगावत की जंग छेडऩे आमादा रहते हैं। नियोगी को इस जहान से गये 20 वर्ष बीतने के बाद भी वे कहीं न कहीं इन श्रमिकों की श्रद्धा व विश्वास में समाए हुए से दिखाई देते हैं हालांकि छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा नियोगी के जाने के बाद तीन प्रमुख व अनेक उप हिस्सों में टूट गया है लेकिन नियोगी की शहादत के दिन उमड़ी मजदूरों की बेपनाह मौजूदगी ये एहसास करा जाती है कि इन्हें अपने मुखिया नहीं बल्कि देवता नियोगी के मोह ने खिंच रखा है। लगभग दो दशक से हजारों की भीड़ में शामिल मजदूर व किसान एक ऐसे व्यक्ति को श्रद्धांजलि देने आते हैं जो उनके लिये अब कोई करिश्मा नहीं कर सकता लेकिन उस करिश्मे की आस सब में अभी भी पहले की ही तरह दिखाई दे जाती है। लड़ाई अभी भी उन्हीं मुद्दों पर जारी है लेकिन नियोगी का विजयी स्वप्न बना छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा अब पल-पल में बिखर व सिमटता दिखाई देने लगा है। मुक्ति मोर्चा के कुछ धड़े तो अब राजनीतिक दलों से भी हाथ मिला साथ चल रहे हैं ऐसी मिलनसारिता नियोगी के समय कभी चर्चा में भी नहीं थी लेकिन समय के साथ कभी एकजुटता की मिसाल बना छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा अब विखंडित रूप में दिन-ब-दिन अपनी कमजोरी का उदाहरण स्वयं बनता जा रहा है।
 
00 कभी न खत्म होने वाली दास्तां थे नियोगी
श्रमिकों का शोषण तो हर सदी में होता रहा है। मुगल काल में श्रमिक गुलामी भरा जीवन जीता रहा, अंग्रेज शासन काल में फिरंगी भारतीय को मजदूर से अधिक कहीं नहीं समझते थे। मजदूरों पर अत्याचार का सिलसिला देश की आजादी के बाद भी खत्म नहीं हुआ। यूनियन बनती बिगड़ती रहीं लेकिन श्रमिकों के अधिकार की लड़ाई और उन पर जुल्म अत्याचार की प्रथा सदियों से चली आ रही है। छत्तीसगढ़ में शंकर गुहा नियोगी ने एक अमर क्रांति शुरू की थी मजदूरों को उनका वास्तविक हक दिलाने की। नियोगी की तर्क शक्ति व एकमात्र लक्ष्य की ओर बढऩे की अदा ने अच्छे-अच्छे उद्योगपतियों को नाकों चने चबवा दिया था। श्रमिकों के लिये कई कानून भी सरकार ने बनाये लेकिन राजनीति की शह पर पलती नौकरशाही और उद्योगपतियों की साजिश श्रमवीरों को उनके पसीने का हक दिलाने हमेशा आड़े आती रही। शोषक वर्ग की आंख का कांटा बन चुके नियोगी को हमेशा के लिये गहरी नींद में सुला दिया गया। मजदूरों का खून चूस चूस कर एयर कंडिशनर कमरों में बैठने वाले, लग्जरी गाडिय़ों में घूमने वाले मजदूरों को हेय दृष्टि से देखने वाले यह तक नहीं सोचते कि दुनिया में मजदूर न होते तो यह विश्व कैसा दिखता, कैसा लगता?
मजदूर, कालका, कुली, काला पत्थर, इंसाफ की आवाज जैसी कई फिल्मों में मजदूर वर्ग के साथ हो रहे शोषण को दिखाने के बाद भी न तो सरकारें जागीं और न ही शोषण करने वालों की अंतर्रात्मा.....। मजदूर की मजबूरी का फायदा उठाने वालों को सोचना चाहिए कि आखिर उसकी मेहनत और कारीगरी से ही हम एक अदद घर-मकान में रहने का सुख हासिल कर पाते हैं, छोटे से उद्योग से कुछ लोग कारपोरेट जगत में शुमार हो जाते हैं, उनकी सफलता के पीछे छिपे श्रम बल को भला कैसे भूलाया जा सकता है? उद्योगपतियों की सफलता में जिसका पसीना गिरा है, उसे कैसे नकार देते हैं लोग? क्यों ये भूल जाते हैं कि मजदूर का पसीना सूखने से पहले उसके श्रम का फल उसे अवश्य मिल जाना चाहिए। शंकर गुहा नियोगी ऐसी ही सोच रखने वाले श्रमिकों के नेता थे। उनकी हत्या करवाने या करने वाले सचमुच अगर सजा नहीं पा सकें हैं तो उन्हें सीखचों के पीछे धकेलना समाज का एक कर्तव्य भी है। अगर चंद्रकांत शाह के आरोपों में कोई बनावट या वैमनस्यता न छिपी हो तो सचमुच उन्हें नि:स्वार्थ भाव से यह लड़ाई लडऩी चाहिए। भले वे अकेले हैं लेकिन अगर सत्य मार्ग पर चल रहे हैं तो यकीनन कारवां जल्द बन जायेगा। अगर यह लड़ाई सार्थक हो गई तो आने वाली सदियों में नियोगी की दास्तां सचमुच कभी नहीं खत्म होगी बिल्कुल उनकी यादों की तरह।

- संतोष मिश्रा-
(पत्रकार)
4/4 सीजी हाऊसिंग बोर्ड कालोनी
औद्योगिक क्षेत्र, भिलाई-490026
(मो. 09329-117655)

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

Aatmhatya

Aatmhatya

Jeevan mein kabhi na kabhi har vyakti khud ko smapt karne ki soch he leta hai prantu marna itna assan nahin hota. Jeevan bahumulya hai, kya nasht karne ke liye paya tha. Roj sunte hain aaj kisi bachhe ne khudkashi kar lee ya kisi ne parivaar smapt kar khud ko goli mari ityadi par kaun hai jimmedaar : jo kasht mein tha, vajah chahe kuch bhi ho, exams mein fail, pyar mein nakami ya koi apradh bodh , prantu kami unme thi ya samaj kamajor tha.
kya koi bhi unhein samjhane wala nahin tha. kya nasha havi tha ya samaj ka vidroh, ya unhein nakamyabi ek samaapt jeevan see lagi. phir jeevan ko jinhone doobhar bana diya tha, ya unhe ye kadam lene par majboor kiya tha unka kya gaya to un bephjool logoen ke liye kyon apna jeevan jo dubara nahi milega, nasht karna.

Agar nirash hain to sochiye kaun sa rasta apna kar us duvidha ko door kar sakte ho jo aapko ye kadam uthane par majboor kar rahi hai. Ek baar nahin hazar bar sochiye, sirf ek din tal deejiye bas ya kewal dus minutes taki aapka dimag chhanik aavesh mein liye gaye nirnay ko sambhal kar dusra option bata sake.


बुधवार, 16 मार्च 2011

veerata....

अपने अधिकार जान उनकी रक्षा करना है वीरता. ज़ुल्मों को न सहना, पापी के आगे न झुकना है वीरता. देश की सीमा पे दुश्मन से लेना लोहा है वीरता, जो सच है उसको ही कहना सच के सिवा कुछ न कहना है वीरता. सच के लिए लड़ना, सच को साबित करना है वीरता. अपनों की हर पल रक्षा करना है वीरता. मासूम अबला की हिफाज़त करना है वीरता. हर पल सिर को ऊँचा रखना केवल प्यार में झुकना है वीरता.........

मंगलवार, 15 मार्च 2011

PAISA HAI BHAGWAAN.......!

पैसा  मेरी  जान , पैसा है भगवान्/पैसा नहीं तो मर जायेगा, आज का हर इन्सान/ मेरा देश महान.  पैसे ने रिश्ते छीन लिए. पैसे के लिए हम क़त्ल कर सकते हैं, पैसे के लिए हम स्मगलिंग कर सकते हैं, माफिया बन सकते हैं, दूसरों की ज़मीन-जायदात छीन सकते हैं, घर लूट सकते हैं, देश कीसुरक्षा से सम्बंधित गुप्त दस्तावेजों का सौदा कर सकते हैं, राजनीत कर सकते हैं, राजनीतिक दल बदल सकते हैं, और ज़रुरत हो तो देश कों भी बेच सकते है. हमारा आत्मसम्मान मर चुका है हमारा स्वाभिमान तो कभी था ही नहीं. शुभ  और लाभ हमारा धर्म है, हानि के बारे में हम नहीं सुनना चाहते, क्योंकि हम लक्ष्मी के पुजारी है. लक्ष्मी के लिए हम बहू कों जला सकते हैं, दूध में ज़हर मिला सकते है, भाई की हत्या कर सकते हैं और माता-पिता कों जायदात से बेदखल कर सकते है. पैसा हमारी मुक्ति का साधन बन गया है. पैसा लेकर डाक्टर गर्भ गिरा सकता है, कन्या भ्रूण हत्या कर सकता है, घर आई बारारात कों वापस ले जा सकता है, घर से निकाल सकता है, नर्सिंगहोम, शव कों देने से मना कर सकता है,बेटी कों फीस न देने पर स्कूल से निकाल सकता है. पैसा मुजरिम कों कानून की पकड़ से मुक्त करा सकता है, पुलिस कों खरीद सकता है, नेता से ठेके दिलवा सकता है और ईमानदार अफसर  कों दण्डित भी करा सकता है,    भ्रष्ट IAS  कों सीने से लगाए रख सकता है.क्या नहीं कर सकता है पैसा ? पैसे के पूजने का समय है, हमारे साथ बोलिए, पैसे महाराज की....जैय!  

JAB SUNI HI NAHI JAA RAHI TO KAISE DUR HO BHRSTACHAR

देशभर में तेज़ी से फैल रहे भ्रष्टाचार कों लेकर हम जैसे करोड़ों लोग चिंतित हैं. चिंता की बात ये भी है की देश का प्रबुद्ध वर्ग   इस  विषय कों लेकर अब लगातार हताश और निराश होता जा रहा है. कारण ये है की सरकारी निकायों में अधिकारी रिश्वत लेते पकड़ा जाता है, और तंत्र उसे तरक्की दे देता है. ईमानदार अधिकारी भ्रष्टाचार कों रोकना चाहता है तो उसे अपमानित  होना  पड़ता  है.स्टिंग आपरेशन में पकडे जाने वाले एक सरकारी अधिकारी कों २००७ में  बहाल ही नहीं किया गया, उसे  तरक्की दे दी गयी और सरकार का मंत्रालय चुप्पी साधे रहा. वो VRS  लेता है और कुछ माह बाद फिर ज्वाइन  कर लेता है.  मंत्रालय चुप्पी साधे है. क्यों? जो  आईएस अधिकारी आवाज़ बुलंद करता है और गंदगी की सफाई करना चाहता है, व्यवस्था उसे ही लाइन हाज़िर कर रास्ते से हटा देती है, क्यों? तब कौन आगे आएगा? एक महिला IAS  ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सफाई अभियान शुरू किया तो व्यवस्था  ने उसे ही  पावेरलेस कर दिया.कहाँ है सारे आयोग और वे निकाय जो भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त कर देने का दम भरते हैं? पब्लिक सेक्टर में समाज सेवक आवाज़ बुलंद करता है तो गुंडे उसकी हत्या कर देते हैं, जैसा की अभी हाल में अन्नाहज़ारे के एक शिष्य की महाराष्ट्र में हत्या कर दी गयी आईएस का  नया बैच आने वाला है, हम उसे क्या विरासत में देंगे, और उससे क्या उपेक्षा करेंगे? ये एक अहम् सवाल है.पहले आवाज़ सुनी जाती थी ख्वाजा अहमद अब्बास ने एक पत्र पंडित जवाहर लाल नेहरु के नाम ब्लिट्ज में लिखा तो फ़ौरन सरकार हरकत में आ गई थी, आज मीडिया को ही सवालों के घेरे में ले लिया जाता है. तब ईमानदार लोग कहाँ जाएँ?.

HAATHI AUR MURTY PREM......MAYAVATI KA

उत्तर  प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती की प्रशंसा करना चाहिए की वो एक स्कूल की अध्यापिका से बड़े प्रदेश की मुख्यमंत्री की कुर्सी तक जा पहुंची.  ये आसान रास्ता नहीं था. कोई कुछ भी कहे, कैसा ही आरोप लगाए, मायावती की सफलताओं कों गंभीरता से लेना चाहिए. वो एक दलित की बेटी है, उनका अंग्रेजी बैकग्राउंड  नहीं था, उत्तर प्रदेश की राजनीति पर  संभ्रांत ब्राह्मणों, क्षत्रियों और बनियों का वर्चस्व रहा है, ऐसे में दलित की बेटी इतनी बुलंदी छूलेगी, किसी कों विश्वास  नहीं हो सकता था.
 
मायावती कों अमर हो जाने की हसरत है. बुरा भी नहीं है. इतिहास में लोगों ने कुवें खुदवाए, धरम्शालायें बनवाईं, मंदिर, चर्च,  मस्जिद और मकबरे बनवाए, नए-नए मत और धर्मों की बुनियादें रखीं. बादशाहों ने मुल्क जीते, मुल्कों में अपने सिक्के चलवाए, तो ये सब होता रहा है. शद्दाद ने तो ज़मीन पर अपनी जन्नत तक बनवा दी थी.अपने समय में हर ताक़तवर इंसान अपने कों अमर कर देना चाहता है. ताक़त और समझ के इस खेल में जहाँ समझ काम करती है, वहां ताजमहल बन जाते हैं.जहाँ ताक़त काम करती है, वहां लाक्षाघर बन कर खाक हो ख़ाक हो जाते है.मायावती एक समझदार राजनीतिज्ञ  हैं लेकिन ये भी सच है के हर समझदारी राजनीति से जुडी नहीं होती है. जो इतिहास से सबक लेते हैं, वर्मान पर निगाह रखते हैं और भविष्य का निर्माण करते हैं, वे इतिहास में भी लम्बी  उम्र पाते है. मायावती बस, यही नहीं जानती हैं. शाएद कोई उन्हें समझाने की सलाहियत भी नहीं रखता है. अकबर के दरबार में नौ रत्न थे. बादशाह अपने रत्नों से सलाह-मशविरा करता था.

आज़ादी के बाद के भारत कों देखें तो भारत की भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती  इंदिरा गाँधी  के पास भी अच्छे-बुरे सलाहकार थे, वो उन्हीं के सहारे भारत-पाक जंग जीत सकीं. जो बुरे थे, उन्होंने उन्हें चुनाव हरवाया भी. लेकिन इंदिरा जी की अपनी समझ ने अच्छे सलाहकारों पर भरोसा किया और इतिहास में अमर हो गयीं. उन्हें हाथियों की मूर्तियों की फ़ौज नहीं खड़ी करनी पड़ी. आज जब के वो नहीं हैं, किन्तु दुनिया उन्हें याद करती है. मुझे नहीं लगता की मायावती  के इर्द-गिर्द चाटुकारों के आलावा कोई हितैषी भी होगा. यदि होता तो उन्हें ये ज़रूर समझाता की मूर्तियों का भविष्य नहीं होता है. इतिहास में नालंदा और अयोध्या के गर्भ में हज़ारों जैनियों और बौद्ध  धर्म की मूर्तियाँ दफन हैं, क्या कोई सोच सकता था की सम्राट अशोक के समय के स्थापित बौद्ध  धर्म  कों प्रथम शंकराचार्य के अखाड़े  उसकी अपनी ज़मीन से ही बेदखल कर देंगे.  (और मोहनजोदड़ो-हड़प्पा जैसे असंख्य उदहारण भी हैं.) तो मालूम हुआ की कोई भी चीज़ स्थाई नहीं है. समय के गर्भ में सबकुछ समां जाता है. समय यदि कुछ याद रखता है तो वो है  पुन्य-आत्माओं कों, उनकी अच्छी सोच और अच्छे कामों कों....../- 

यदि मायावती अमर होना चाहती है और चाहती हैं के इतिहास उन्हें अच्छे अर्थों में याद रखे तो वो दलितों, शोषितों और पिछड़ों कों सशक्त बनाने का अभियान शुरू करें. उनके लिए रोज़गार के अवसर  उपलब्ध कराएँ, उन्हें शिक्षित करें, उनके दिलों में अपनी जगह बनाएं और भयमुक्त समाज का निर्माण करें. मनुवाद कोई विचार नहीं है. ये तो एक तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था की विवादास्पद संहिता रही है. आज देखें तो ब्राहमण के बेटे कों भी रोज़गार चाहिए और बनिए के बेटे कों भी. मुस्लिम समुदाय के बेटे कों भी रोज़गार चाहिए और दलित व् पिछड़े वर्ग के युवाओं कों भी. हाथी की मुर्तिया घरों में सूने पड़े चूल्हों में आग नहीं दहका सकतीं. .याद रहे,  रोब, आतंक, भय की उम्र नहीं हुआ करती. नमरूद हो या शद्दाद, कंस हो या हिरंकश्यप, ज़ार हो या नादिरशाह या सद्दाम, किसी की भी उम्र ने साथ नहीं दिया. ईसा हों या मोहम्मद, राम हों या कृष्ण, नानक हों या कबीर, गाँधी हों या आंबेडकर, सब दिलों में बसे रहते हैं. क्यों? मायावती जी आपने कभी महसूस किया की हज़ारों करोड़ रूपये हाथी की मूर्तियों की सुरक्षा में जो आप बर्बाद करने जा रही हैं, उनका भविष्य क्या होगा?    > 
दरिया-दरिया बहते-बहते, बीच समंदर आ पहुंचा, यार मुझको खबर नहीं है, आगे कौन सी मंजिल है.