बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

"गारंटी है क्या.............आपके पास.........! नहीं न.......फिर......?"

"जाके पांव न फटे विबाई.......वो क्या जाने पीर पराई..........?"
आम जुबान में कई लोग किसी भी किस्म की कमजोरी को गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं। गरीब को फटेहाल या दो कौड़ी का कहते हैं, किसी को लंगड़ा, किसी को लूला, पागल, अंधड़ा, कनवा.........! 
ये सारी जुबान तब तक तो ठीक है जब तक आपके परिवार में किसी को कुदरत से मिली ऐसी कोई तकलीफ न हो लेकिन जब घर पर कोई ऐसा हो तो क्या उस वक्त भी इसी तरह के शब्द उतनी ही आसानी से इस्तेमाल कर सकते हैं लोग.......? वैसे तो कहा गया है कि जिसके खुद के पैरों में विबाई न पड़ी हो वह दूसरों का दर्द क्या जाने लेकिन बेरहम और रहमदिल, अक्लमंद और नासमझ या कम समझ के बीच फर्क तो यही है कि दूसरों की भावनाओं को देखते हुए किसी ऐसी बात को गाली की तरह इस्तेमाल न करें जिस पर उनका कोई बस नहीं है।
"कुदरत को तौल करें फैसला........"
अगर कोई बद्तमीज है, घमंडी है, हिंसक है, भ्रष्ट या बेईमान है, दगाबाज या झूठा है तो ऐसी तमाम बातें कुदरत की दी हुई न हो कर लोगों की खुद की पाई हुई होती हैं।
किसी के बारे में न्यायसंगत तरीके से अगर ये बातें कहीं जाएं, तो ये गालियां नहीं हैं। बिना मेहनत जो दूसरों के हिस्से का खाता है, उसे हरामखोर कहने में भी कोई बुराई नहीं है, संसदीय व्यवस्था में इनमें से अधिकांश शब्दों को असंसदीय करार देकर निकाल दिया जाता है लेकिन जिम्मेदारी के साथ बोलचाल में इनके इस्तेमाल में कोई बुराई नहीं होती। किंतु जिन बातों पर किसी का बस नहीं चलता, जन्म से मिली हुई तकलीफों या साधारण रूप रंग को लेकर जब कोई जली-कटी जुबान का इस्तेमाल करता है तो वह यकीनन नाइंसाफी है। 
"गारंटी है क्या.............आपके पास, नहीं न....फिर......"
किसी दूसरे के बच्चे को काला-कलूटा कहने के पहले यग जरूर सोचें कि आपकी अगली पीढ़ी के रंग की आपको कोई गारंटी है....? मानसिक रूप से कमजोर या अविकसित किसी बच्चे को पागल कहने के पहले यह सोचें कि आपके परिवार में कोई ऐसा पैदा हो और उसे लोग इसी जुबान में बुलाएं तो आपको कैसा लगेगा.....?
...................(संतोष मिश्रा)