सोमवार, 8 अगस्त 2011

"आंखें" बंद किये देख रहा हूं, चापलूसों को.......

मैं देख रहा हूं.....
"भाव" के "अभाव" में हौले से जन्मता है "दुर्भाव",
"दुर्भावना" के दबाव में सिसक रही है "भावना",
और आप कहते हैं कि....
"भावना" को समझिये "शब्दों" में क्या रखा है....!
हां, गलत कहते हैं आप,
सब "शब्दों" का ही "खेल" है,
शब्दों ने ही "अलग" किया,
और अब तो जनाब "शब्दों" में ही "मेल" है,
"भावना", "संवेदना" सब "खत्म" हो रही हैं
और मैं सिर्फ और सिर्फ "आंखें" बंद किये देख रहा हूं, चापलूसों को.......
और मैं सिर्फ और सिर्फ "आंखें" बंद किये देख रहा हूं, चापलूसों को.......





शनिवार, 6 अगस्त 2011

बड़े आदमी की माँ

बड़े आदमी की माँ



तेज चिलचिलाती धूप में एक माँ अपने बेटे का बैग थामे उसे स्कूल से लेकर चली आ रही है। मन में बड़े–बड़े अरमान लिए कि,‘मेरा बेटा एक दिन ‘बड़ा आदमी’ बनेगा।’ हाथ की छतरी ऐसे पकड़े है कि खुद की कुछ परवाह नहीं है किंतु बेटे पर धूप का एक कतरा भी न पड़ने देती है।तीस साल बीत चुके हैं, आज उसका बेटा ‘बड़ा अधिकारी बन चुका है, सारे शानो–शौकत का मालिक है परंतु वह माँ आज भी चिलचिलाती धूप में स्कूल का बैग थामे अपने पोते को साथ लिए चली जा रही है, छाता भी वैसे ही पकड़े है कि पोते पर धूप का एक कतरा भी न पड़े, यकीनन यह पोता भी ‘बड़ा अधिकारी’ बनेगा....।

नासमझ

नासमझ


नन्ही पिंकी आज बहुत खुश थी। जिन गन्दी गरीब लड़कियों के साथ उसे खेलने की इजाजत नहीं थी, आज उन्हें ही बंगले में बुलाया गया था। वो भी दादी माँ के आदेश पर।

आज दुर्गाष्टमी जो थी। दादी माँ ने अपने हाथों से उन सभी के ललाट पर रोली का टीका लगाया। उनके हाथों में मौली का धागा बाँधकर उनका पूजन किया फिर उन सभी के आगे बड़े–बड़े थाल भरकर खरी–पूड़ी, हलवा व चने का शाक परोसा।

इस पर माँ ने हल्का-सा विरोध किया था, ‘‘ माँ जी इतनी छोटी बच्चियाँ इतना ज्यादा खाना नहीं खा पाएंगी।’’
दादी भड़क उठी थीं, ‘‘ये कैसी ओछी बात कर दी बहू तुमने। देवी के के शाप से डरो। ये कन्याएँ देवी का ही रूप् हैं।’’ माँ ने फौरन चुप्पी साध ली थी।
शरमाती–सकुचाती, सहमी हुई बच्चियों ने आधे से ज्यादा खाना झूठा छोड़ दिया था। दादी ने उन गरीब बच्चियों के हाथ में दस–दस रुपए के करारे नोट पकड़ाए।
उनके जाने के बाद दादी के कहने पर नौकर रामू ने उनकी थालियों की जूठन चार प्लास्टिक की थैलियों में भरकर दरवाजे पर रख दी। ये सब देख पिंकी पूछ बैठी।

‘‘दादी जूठे खाने को रामू ने थैलियों में डालकर क्यों रखा है?’’

दादी ने समझाया, ‘‘आज दुर्गाष्टमी है ना। जमादारिन खाना माँगने आती ही होगी उसे देने के लिए ही रखा है।’’
पिंकी किंचित हैरानी से बोली, ‘‘दादी ये तो जूठा खाना है। आप तो कहती हो कि किसी दूसरे का जूठा खाना नहीं खाना चाहिए। बहुत सी बीमारियाँ लग जाती हैं और पाप भी लगता है?’’

दादी मुस्करायी, ‘‘अरे बिट्टो आज के दिन कन्याओं का ये जूठन,देवी का प्रसाद होता है, इसे खाकर तो जमादारिन की सभी बीमारियाँ ठीक हो जाएगी साथ ही उसके कई जन्मों के पाप भी धुल जाएंगे।
जमादारिन की रोटी माँगने की आवाज सुनकर रामू खाने की थैलियाँ लेने अन्दर आया किन्तु कमरे का दृश्य देखकर स्तब्ध रह गया। पिंकी थैलियों में रखी जूठन निकालकर अपनी खाने की थाली में डाल रही थी। तभी दादी माँ भी जमादारिन को पैसे देने उधर आ पहुँची।
‘‘पिंकी ये क्या गजब कर रही है?’’
दादी माँ की दहाड़ सुनकर सहमी पिंकी धीरे से बोली, ‘‘दादी थोड़ा सा देवी का प्रसाद ले रही थी। इसके खाने से मेरे टांसिल भी हमेशा-हमेशा के लिए ठीक हो जाएंगे।’’
दादी भड़क उठी, ‘‘बेवकूफ लड़की ये खाना तेरे लिए जहर है। ना जाने कितनी बीमारियाँ समेटे गन्दे, गरीब व छोटी जात की लड़कियों की जूठन है ये। मूर्खा दुनिया भर के पाप अपने सिर पर लगाना चाहती है?’’
पिंकी हैरान थी, ‘‘पर दादी आपने ही तो कहा था कि ये देवी माँ का प्रसाद है। इसके खाने से जमादारिन की सभी बीमारियाँ ठीक हो जाएगी तो फिर मेरे टांसिल....दादी आग बबूला हो उसी बात काटती हुई चिल्लाई, ‘‘चुप कर, बित्ते भर की छोकरी होकर मुझसे बहस करती है। आज तक तेरी माँ की हिम्मत नहीं हुई, मुझसे इस तरह के सवाल–जवाब करने की।’’
नन्हीं पिंकी सहमकर चुप हो गई लेकिन अब भी उसकी समझ में ये नहीं आ रहा था कि जूठा खाना जमादारिन के लिए देवी का प्रसाद है वो उसके लिए जहर कैसे हो सकता है?

भीख माँगनेवाले परेशान कर डालते हें, साब!

भीख माँगनेवाले परेशान कर डालते हें, साब!

भीड़ भरे बाजार में सब्जी का ठेला लगाने के लिए उसे सुबह आते से ही नगर निगम कर्मचारियों को ‘वसूली’ देना पड़ती थी। यातायात पुलिस वाले को प्रतिदिन शाम को तीस रुपए देने पड़ते थे, ताकि यातायात सुचारु रूप से चल सके।
आज शाम को ठेले पर ग्राहकों की अच्छी–खासी भीड़ जमा थी। उसको ग्राहकों के बीच व्यस्त देखकर पुलिसवाला एक तरफ खड़ा हो गया। उसने हाथ में पकड़ा हुआ डण्डा बगल में दबा लिया था।
ग्राहकों से फु्र्सत पाते ही वह पुलिसवाले को देने के लिए रुपए इकट्ठे कर ही रहा था, तभी एक भिखारी दुआएँ देता हुआ आ खड़ा हुआ। एक का सिक्का उसके बर्तन में डालने के बाद पुलिस वाले को रुपए थमाते हुए उसने झुँझलाकर कहा–‘दिन भर भीख माँगनेवाले परेशान कर डालते हें, साब! भगवान जाने कब इनसे पीछा छूटेगा।’

झगड़ रहे थे,खच्चर की देखभाल वे ही करेंगे............

झगड़ रहे थे,खच्चर की देखभाल वे ही करेंगे............

उम्र के इस मुकाम पर जब उसे आराम की ज़रूरत थी, रामलाल खच्चर रेहड़ी पर सीमेंट, लोगों के घर का सामान, सब्जी मंडी से सब्जी आदि लाद कर, यहाँ से वहाँ पहुँचाता था। घर हालांकि बहुत बड़ा था, पर उसमें रामलाल और उसकी पत्नी ही रहते थे। अपनी दिन–प्रतिदिन कमजोर होती देह को किसी तरह संभाले,अपने खच्चर के साथ रामलाल दिन भर मजदूरी करता और तीनो जने, मतलब रामलाल उसकी पत्नी और खच्चर किसी तरह खा–पीकर आराम करते। यह बड़ा सा मकान रामलाल ने अपनी जवानी में ही बना लिया था। दो बेटे हुए, उनको पढ़ाया, बेटों को अच्छी नौकरी मिली, उनकी शादियाँ हुई और वे अलग होकर रहने लगे। रामलाल ने यह समझदारी की, कि जीते जी अपनी संपति का बंटवारा नहीं किया। लेकिन बेटे नाराज थे कि पिताजी आज भी खच्चर रेहड़ी चलाते हैं। पता नहीं किसके लिए कमा रहे हैं। बेटों को तो कुछ देते नहीं। हालांकि बेटों से कुछ लेते भी नहीं थे रामलाल!
जैसेकि आमतौर पर सभी बूढ़ों के साथ होता है, अन्तत: ऐसी स्थिति भी आई कि रामलाल का शरीर जवाब दे गया और वे खच्चर रेहड़ी चलाने में भी असमर्थ हो गए। बस किसी तरह अपनी दैनिक दिनचर्या निभाते। बेटों ने फिर याद दिलाया कि अब तो खच्चर की ज़रूरत भी नहीं रही। सो किस लिए उसे रखा हुआ है। रामलाल ने बेटों को अपने घर में ही मस्त रहने की सलाह दी और कहा कि वे उसे सलाह न दें। रामलाल खच्चर की बाग पकड़े टहलने निकलते और कभी- कभार उसकी पीठ पर सवार हो वापिस लौटते। पत्नी भी अब आराम के लिए कहने लगी थी, हालांकि खच्चर बेच देने के लिए उसने कभी नहीं कहा।
रामलाल की मृत्यु हो गई। रामलाल की पत्नी ने न जाने क्या सोच कर तब भी खच्चर को नहीं बेचा। हालांकि बेटों ने अब भी कहा कि खच्चर समेत इस पुराने मकान को भी बेच दिया जाए और सब भाइयों में इसका बँटवारा कर दिया जाए। लेकिन वे असफल होकर अपने–अपने घरों को लौट गए। कुछ ही दिनों बाद रामलाल की पत्नी की भी मृत्यु हो गई। रामलाल के बेटे, रामलाल ने वसीयत और खच्चर सबको ठिकाने लगाने की योजना बना ही रहे थे कि पता चला रामलाल ने वसीयत की हुई है। अजीब सी बात है कि उन्होंने अपने बेटों को कभी इसके बारे में नहीं बताया था। एक वकील ने बताया कि रामलाल की वसीयत के अनुसार रामलाल और उसकी पत्नी की मृत्यु के बाद जब तक वह खच्चर जीवित रहेगा, उसके खान–पान का इंतजाम उनके बैंक खाते से किया जाए। न तो उनका मकान खच्चर के रहते बेचा जाए और न ही किराए पर दिया जाए। हाँ, जो व्यक्ति खच्चर की देखभाल करेगा, वह उस मकान के एक हिस्से में रह सकता हे। खच्चर की मृत्यु के बाद यह मकान और संपति आदि उसी को दी जाए, जिसने खच्चर की देखभाल की हो।
जिन बेटों ने कभी बाप की परवाह नहीं की, जो उसे खच्चर बेचने के बार–बार दबाव डालते रहे, वे ही अब झगड़ रहे थे कि खच्चर की देखभाल वे ही करेंगे।

एहसास................

एहसास



बहुत दिन हो गए थे, वह अपने पिता से नहीं बोला था। रहते तो दोनों एक ही घर में थे, लेकिन दोनों में कोई बातचीत न होती थी। इस बारे में परिवार के दूसरे सदस्यों को भी पता था। एक दिन उस की दादी ने पूछ ही लिया, ‘‘बेटा, तू अपने पिता से क्यों नहीं बोलता? आदमी के तो मां–बाप ही सब कुछ होते हैं। तेरे लिए कमा रहा है, उसने क्या अपने साथ ले जाना है।’’
दादी माँ की बात सुनकर वह बोला, ‘‘अम्मा! तेरी सब बातें ठीक हैं। मुझे कौन सा कोई गिला–शिकवा है। मैं तो उन्हें केवल एहसास करवाना चाहता हूँ। वे भी दफ्तर से आकर सीधे अपने कमरे में चले जाते हैं, तुम्हारे साथ एक भी बात नहीं करते।

राखी में न पहुँचने का दर्द...............

राखी में न पहुँचने का दर्द......................

बहन, मैं रक्षाबन्धन के त्यौहार पर तुम्हारे पास नहीं पहुचं सकूँगा जबकि हर वर्ष पहुंचता था। तुम्हें तकलीफ होगी, मैं भलीभांति समझता हूं। हमारे रीति–रिवाज हमारी संस्कृति के अंग है और हम इन्हें बिना किसी संकोच के ईमानदारी के साथ निभाते आ रहे हैं।

बहन, मैंने पिछले वर्ष ही पढ़ाई छोड़ी है। मैं एक विद्यार्थी–भर ही रहा। में तुमसे राखी बंधवाता रहा और तुम्हारी रक्षा करने की जिम्मेवारी को दोहराता रहा। मां–बाप द्वारा दिए गए उपहार तुम तक पहुँचाता रहा। पढ़ाई खत्म होने के बाद मैंने नौकरी की तलाश में भटकना शुरू कर दिया। एक रोज़गार–प्राप्त अपने सहपाठी के साथ रह रहा हूं। माँ–बाप को झूठमूठ तसल्ली देता हूं कि नौकरी तो मिल गई है परन्तु तन्ख्वाह थोड़ी है और अपना गुजारा मुश्किल से कर पाता हूँ। अत: फिलहाल कुछ भेज नहीं पाऊँगा। असल में नौकरी मिलने की सम्भावना दूर–दूर तक नहीं है। घर की स्थिति के बारे में तुम जानती ही हो कि काम–धन्धे के लिए माँ–बाप के पास रुपए नहीं हैं हालाँकि मुझे व्यवसाय करने में कोई संकोच नहीं है।

मेरी प्यारी बहन, तुम्हें आरक्षण कोटे में नौकरी मिल गई थी। जीजा जी भी नौकरी में हैं। दोनों अच्छा कमा लेते हो। हां, जो मैं कहने जा रहा हूँ, यह कुछ अटपटा लग सकता है। हमारी परम्परा में जहां तक मैं समझता हूं, बहन की रक्षा की बात तक उठी होगी जब वह किसी न किसी रूप में आश्रित रही होगी पर, आज तो नहीं।

आज के युग में रक्षा को केवल शारीरिक क्षमता से नहीं जोड़ा जाता। पैसे के बल पर सब कुछ सम्भव है, है न बहन! या तो सरकार पहले पुरुषों को रोजगार दे या फिर धर्म–गुरु रक्षा के दायित्व को, उठा सकने वाले पर डाल दें।

बहन, मुझे तुम्हारे पत्र का इन्तजार रहेगा। परन्तु मुझे जल्दी नहीं है। तुम जीजा जी से, अपने संस्थान के सहयोगियों से, किसी पत्र/पत्रिका के सम्पादक से, किसी राजनेता से, किसी धर्म–गुरु से सलाह मशविरा करकेबताना–क्या यह सम्भव होगा?....तुम्हारा भाई–निर्विभवत हो गए।

जवाब का इन्तेजार है......................

‘‘गलती क्या............’’

‘‘गलती क्या...’’ मैं कुछ पूछना चाहता था



बात काफी बढ़ गयी थी और मैं चाहता नहीं था कि यह किस्सा मेरे घर तक भी पहुँचे। मैं किसी तरह से इस बात को यहीं रोक देना चाहता था, पर मोहल्ला था कि इसे फैला देने पर तुला था। मुझे तो मेरा कसूर भी लोगों ने ही बताया था। हालाँकि मैं अब भी उसे अपनी गलती नहीं मान पाया था, पर डर था कि मेरे घर वाले भी इसे मेरी गलती ही न मान लें । साथ के लड़के मुझे आशिक कह कर बुलाने लगे थे, लड़कियाँ मुझे देखकर मुस्कराने लगी थीं। अपने आप को ऊँचा और समझदार समझने वालों ने कहा, ‘इसे और कोई कहाँ मिलेगी?’ आखिर पिता जी ने भी पूछ ही लिया कि माजरा क्या है। मैंने डरते हुए कहा, कोई भी बात नहीं है। पिछले इतवार जब बारिश के कारण सड़कों पर पानी भरा था तो एक अंधी लड़की को हाथ पकड़ कर बस स्टैंड से उसके घर तक छोड़ आया था।’
‘‘जो हुआ सो हुआ, आइंदा ऐसी गलती मत करना।’’ पिता जी ने डाँटने हुए कहा।
‘‘गलती क्या...’’ मैं कुछ पूछना चाहता था,पर पिता जी गुस्से में कमरे से बाहर जा चुके थे।

माँ तो सबकी एक जैसी होती है....तुम्हारा जेबकतरा!’

माँ तो सबकी एक जैसी होती है....तुम्हारा जेबकतरा!’


बस से उतरकर जेब में हाथ डाला। मैं चौंक पड़ा। जेब कट चुकी थी। जेब में था भी क्या? कुल नौ रुपये और एक खत, जो मैंने माँ को लिखा था, कि मेरी नौकरी छूट गई है। अभी पैसे नहीं भेज पाऊँगा। तीन दिनों से वह पोस्टकार्ड जेब में पड़ा था, पोस्ट करने को मन नही नहीं कर रहा था।
नौ रुपये जा चुके थे। यूँ नौ रुपये कोई बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन जिसकी नौकरी छूट चुकी हो, उसके लिए नौ रुपये नौ सौ से कम नहीं होते।
कुछ दिन गुजरें, माँ का खत मिला, पढ़ने से पूर्व मैं सहम गया। जरूर पैसे भेजने का लिखा होगा, लेकिन खत पढ़कर मैं हैरान रह गया। माँ ने लिखा था, ‘‘बेटा, तेरा पचास रुपए का भेजा हुआ मनिआर्डर मिल गया है। तू कितना अच्छा है रे!...पैसे भेजने में कभी लापरवाही नहीं बरतता।’’
मैं इसी उधेड़बुन में लग गया कि आखिर माँ को मनीऑर्डर किसने भेजा होगा?

कुछ दिन बाद एक और पत्र मिला। चंद लाइनें थीं, आढ़ी–तिरछी। बड़ी मुश्किल से खत पढ़ पाया। लिखा था, ‘‘भाई ! नौ रुपये तुम्हारे और इकतालीस रुपये अपनी ओर से मिलाकर, मैंने तुम्हारी माँ को मनीऑर्डर भेज दिया है।....फिकर न करना।...माँ तो सबकी एक जैसी होती है न! वह क्यों भूखी रहे?.....तुम्हारा जेबकतरा!’’
संतोष मिश्रा (सिटी चीफ - छत्तीसगढ़)

रामदीन स्टेज से नीचे उतर भीड़ में खो गया.......

रामदीन स्टेज से नीचे उतर भीड़ में खो गया.......

हे भगवान्, ये क्या अनर्थ हो गया मुझसे.
५० हजार रुपये ईनाम के लिए उसके नाम की पुकार स्टेज से सुनते ही रामदीन अचानक बडबडाने लगा था.
रामदीन नहीं जानता था कि कूड़ेदान वाली इस तस्वीर को इत्ता बड़ा इनाम मिल जायेगा.
जैसे ही उसे आयोजन समिति ने स्टेज पर बुलाया पहले तो वो सकुचा सा गया फिर समिति के कुछ सदस्यों ने उसे ससम्मान ऊपर तक पहुचाने का प्रयास किया तो उसके कदम बढ़ ही नहीं रहे थे.
भीड़ में लोग बुदबुदाने लगे थे, वाह रामदीन के तो भाग जाग गए. लेकिन अभी तो ठीक था अचानक बीमार सा क्यूँ दिखने लगा रामदीन..........?
स्टेज पर पहुँच रामदीन ने जब 50 हजार का इनाम लेने से मना कर दिया तो सबकी आँखें मानो फटी सी रह गईं. छोटी सी दूकान में फोटो खिंच परिवार का पेट पालने वाला रामदीन क्या पागल हो गया. ........? ऐसी बातें दबी जुबान भीड़ में से सुनाई देने लगी थीं.
आयोजन समिति के लोग भी हक्के बक्के से लग रहे थे. ईनाम राशी हाथ में लिए शहर के मेयर भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे, रामदीन उनकी तरफ बढ़ने कि बजाय माइक के तरफ जाने लगा था,
संचालन कर रहे व्यक्ति को हाथ से धकियाते रामदीन माइक हाथ में ले कहने लगा - यह ईनाम मैं नहीं ले सकता, जो मेरे द्वारा खिंची फोटो ईनाम कि हकदार बनी है वो शहर के कूड़ेदान कि फोटो है, मैंने उस रोज देखा मेरे शहर के कुछ गरीब बच्चे कूड़ेदान में घुस कुछ खा रहें हैं.
उनके हाथ में जूठन और कुछ सड़े हुए फल थे. वो बहुत खुश थे. मेरी नजर उन पे पड़ी तो मैंने फोटो लेना चाहा.लेकिन मुझे देख डर के मारे बच्चे कूड़ेदान से निकल भागने लगे. मैंने ५ रुपये का नोट दिखा कर उन्हें वापस बुलाया.उन्हें पैसे देकर फिर से कचरेदान में वापस घुसाया, और फोटो खिंच ली.
ये बताते बताते अचानक रामदीन के पैर कापने लगे रुआंसे गले से वह बोला - अभी तक तो ठीक था लेकिन जैसे ही मेरी खिंची फोटो को पहला स्थान मिला अचानक कपकपी सी लग रही है. मेरी आत्मा अचानक रोने लगी है, ऐसा महसूस हो रहा है कि मै जोर जोर से रोने लगूँ.
मैंने अपने स्वार्थ के लिए उन बच्चों को कूड़ेदान में वापस भेजने का अपराध किया है, मै ईनाम नहीं सजा का हकदार हूँ. इसका प्रायश्चित केवल यही हो सकता है कि मै ये ईनाम न लूँ. ये राशि ऐसे बच्चों के लालन पालन में लगा दी जाए. इतना कह रामदीन स्टेज से नीचे उतर भीड़ में खो गया.

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

‘‘तुम लुको मां, मैं अभी नाव बनाता हूँ.....।’’

‘‘तुम लुको मां, मैं अभी नाव बनाता हूँ.....।’’

ढाई वर्ष के मासूस सोनू ने कागज की नाँव पानी में डाली तो वह हवा में उलट गई और उसमें पानी भर गया।
सोनू भाग कर आंगन में मां के पास पहुँचा और बोला,
‘‘मां, मेली नाँव दूसली बना दो, वह तो दूब दई है।’’
उसकी विधवा मां (रमा) उदास हो गई। फिर धीरे से बोली, ‘‘बेटे, नाँव तो मेरी भी डूब चुकी है।’’
‘‘तुम लुको मां, मैं अभी नाव बनाता हूँ.....।’’

‘‘तुम्हाली नाँव तैसे दूबी मां?’’ सोनू ने आश्चर्य व्यक्त किया, क्योंकि उसने मां के पास कभी कागज की नाव नहीं देखी थी।

रमा ने शून्य में देखते हुए धीरे से कहा, ‘‘एक दिन तूफान आया, बस, डूब गई...............।’’

‘‘तुम दूसली नाँव त्यों नहीं बनातीं?’’ सोनू अपने नन्हें हाथों से मां का मुख ऊपर उठा पूछने लगा।

रमा की आँखों में आंसू छलक आए। उन्हें पोंछती हुई वह इस तरह बोली जैसे अपने से ही कह रही हो, ‘‘अब मेरी दूसरी नइया नहीं बन सकती, सोनू, क्योंकि इस जीवन में तुम आ चुके हो और मेरा उपयोग हो चुका है....औरत एक वस्तु है बेटे, जो मिट्टी के बर्तन की तरह ......जूठी होती है.....।’’

सोनू की समझ में कुछ न आया। उसने दूर एक बादामी कागज देखा और दौड़ कर उसे उठा लिया। फिर रमा की गोद में सिमट कर बैठ गया और कागज को जमीन पर फैलाते हुए बोला, ‘‘तुम लुको मां, मैं अभी नाव बनाता हूँ.....।’’
रमा एक बार फिर स्तब्ध सी 5 महीने पहले दुर्घटना में उसे छोड़ गये रौशन की याद में घिर गई.....।

‘‘हाथ से सिगरेट छूट गई......’’

‘‘हाथ से सिगरेट छूट गई......’’
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‘‘अठारह वर्ष से कम उम्र के बच्चों को तम्बाकू या तम्बाकू से बने पदार्थ बेचना दंडनीय अपराध है।’’शहर में पान की दुकानों पर यह तख़्ती लगी थी। स्कूल के छोकरे सिगरेट पीना चाह रहे थे।
‘‘ओए, जा ले आ सिगरेट।’’
‘‘मैं नहीं जाता। पान वाला नहीं देगा।’’
‘‘अबे, कह देना, पापा ने मँगाई है।’’
‘‘स्कूल में.....?’’
‘‘चलो, शाम को नुक्कड़ पर मिलेंगे।’’
‘‘ठीक है।’’
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‘‘भइया, एक सिगरेट का पैकेट देना। हाँ, गुटखा भी।’’
‘‘बच्चे, तुम तो बहुत छोटे हो। तुम्हें नहीं मिल सकता।’’
‘‘अंकल, मेरे पापा ने मंगवाई है। ये लो पैसे।’’
‘‘ओह! तुम तो शुक्ला साब के बेटे हो।’’
पान वाले ने सहर्ष उसे सामान दे दिया।
कुछ दिन बाद....।
‘‘राम–राम शुक्ला जी।’’
‘‘लीजिए साब। आजकल बेटे से बहुत सिगरेट मँगाने लगे हो। हर रोज शाम को आ जाता है।’’
सुनकर शुक्ला साब के हाथ से सिगरेट छूट गई......।

हाथ एक भी गुब्बारा नहीं लगा..........

हाथ एक भी गुब्बारा नहीं लगा..........मगर क्यूं.....
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गैस भरे गुब्बारे लिए फुटपाथ पर खरीददरों की प्रतीक्षा से ऊब कर ऊंघने लगना रामदीन की आदत बन चुकी थी। अर्धचेतनावस्था में रंग–बिरंगे सपनों को गुब्बारों की शक्ल में उड़ते देखता उन्हें पकड़ने की कोशिश, वह हमेशा करता।
कभी–कभी सपनों के किसी गुब्बारे के नीचे लटकती डोर उसके हाथों के पास से गुजरती महसूस होती, पर जैसे ही वह उन्हें पकड़ने को होता, गुब्बारे ऊपर. .... . .... और ऊपर उठ जाते, फिर किसी खरीददार की आवाज से उसकी चेतना यथार्थ में लौट आती। यूं लगता मानों सपने सिमट जा रहे हैं, सिर्फ़ गुब्बारे ही बचते थे।
चालीस सालों में रामदीन अपने सपनों में उड़ते वे एक भी गुब्बारे नहीं पकड़ पाया।
सचमुच रामदीन के जैसे कई सपने तलाशने वाले चेहरे जिंदगी के झंझावातों में कुछ इस तरह खो गये हैं कि वर्षों बाद भी उनके हाथ एक भी गुब्बारा नहीं लगा..........मगर क्यूं.....
अचानक पास ही बज रहे संगीत से रामदीन फिर झुंझला कर जाग गया, गीत के बोल थे - सारे सपने कहीं खो गये, जाने हम क्या से हो गये. .... . ....।
कभी अपने लिये गुब्बारे का सपना देखने वाले रामदीन का जवान बेटा दीपू फैक्ट्री के शोर में अब सपनों की धुंध बनाता है और उसके धुएं में सपनों के चेहरे तलाशता है.....।
रामदीन को याद आता है, कि उसके बेटे दीपू ने कभी गुब्बारे के लिए जिद नहीं की थी.....। यकीनन रामदीन के जैसे वह भी सपनों में संतोष करना सीख गया था........।

अँधेरे के खिलाफ ........

अँधेरे के खिलाफ
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पत्नी की बीमारी, भ्रष्टाचार के मिथ्या आरोप तथा महीनों से रुका वेतन........इन तमाम झंझावातों ने अनूप को झकझोर कर रखा दिया था तभी तो उसका मनोबल टूटने की चरम तक पहुँचा।

बहुत सोच–विचार के बाद आज अनूप जहरीली गोलियाँ ले आया, जिन्हें वह दूध में मिला कर पत्नी रमा और बिटिया अनु के साथ पी जाने की ठान बैठा था। उसे सहसा रमा और अनु पर तरस आने लगा जो उसके खूंखार इरादों से अनजान थीं।

रात के साढ़े नौ बजने को थे। बारिश–बिजली और तेज हवाओं से वातावरण बोझिल हो चला था। बस कुछ समय और, फिर तमाम चिंताओं–परेशानियों से सदा के लिए मुक्ति. .... . ....। उसने सोचा और दूध गैस पर गर्म करने के लिए रख दिया। शक्कर के साथ गोलियाँ भी दूध में डाल दीं तभी अचानक लाइट गुल हो गई।

‘शिट–शिट’ अनूप ने झल्लाते हुए मोमबत्ती खोजी और जलाई जो हवा के कारण तत्काल बुझ गई। उसने फिर जलाई, इस बार अनु, जो पास ही खड़ी थी, अपने नन्हें हाथों की ओट कर खिड़की से आ रही तेज हवाओं से काँपती मोमबत्ती को बुझने–से बचाने की भरसक कोशिश में लग गई। कुछ क्षणों तक वह अपलक यह दृश्य देखता रहा फिर अँधेरे के खिलाफ जंग में वह भी शामिल हो गया और उसने जहरीला दूध सिंक में उंड़ेल कर नल चालू कर दिया......।
चंद लाईनें सहज ही उसकी जुबान पर आ गयीं.....
‘सबसे छुपा के दर्द, जो वो मुस्कुरा दिया।
उसकी हंसी ने तो आज मुझे रूला दिया।
लहजे से उठ रहा था, हर एक दर्द का धुआं।
चेहरा बता रहा था कि कुछ गवां दिया।
आवाज में ठहराव था, आंखों में नमी थी।
और कह रहा था कि मैंने सबकुछ भूला दिया।।’