बुधवार, 16 मार्च 2011

veerata....

अपने अधिकार जान उनकी रक्षा करना है वीरता. ज़ुल्मों को न सहना, पापी के आगे न झुकना है वीरता. देश की सीमा पे दुश्मन से लेना लोहा है वीरता, जो सच है उसको ही कहना सच के सिवा कुछ न कहना है वीरता. सच के लिए लड़ना, सच को साबित करना है वीरता. अपनों की हर पल रक्षा करना है वीरता. मासूम अबला की हिफाज़त करना है वीरता. हर पल सिर को ऊँचा रखना केवल प्यार में झुकना है वीरता.........

मंगलवार, 15 मार्च 2011

PAISA HAI BHAGWAAN.......!

पैसा  मेरी  जान , पैसा है भगवान्/पैसा नहीं तो मर जायेगा, आज का हर इन्सान/ मेरा देश महान.  पैसे ने रिश्ते छीन लिए. पैसे के लिए हम क़त्ल कर सकते हैं, पैसे के लिए हम स्मगलिंग कर सकते हैं, माफिया बन सकते हैं, दूसरों की ज़मीन-जायदात छीन सकते हैं, घर लूट सकते हैं, देश कीसुरक्षा से सम्बंधित गुप्त दस्तावेजों का सौदा कर सकते हैं, राजनीत कर सकते हैं, राजनीतिक दल बदल सकते हैं, और ज़रुरत हो तो देश कों भी बेच सकते है. हमारा आत्मसम्मान मर चुका है हमारा स्वाभिमान तो कभी था ही नहीं. शुभ  और लाभ हमारा धर्म है, हानि के बारे में हम नहीं सुनना चाहते, क्योंकि हम लक्ष्मी के पुजारी है. लक्ष्मी के लिए हम बहू कों जला सकते हैं, दूध में ज़हर मिला सकते है, भाई की हत्या कर सकते हैं और माता-पिता कों जायदात से बेदखल कर सकते है. पैसा हमारी मुक्ति का साधन बन गया है. पैसा लेकर डाक्टर गर्भ गिरा सकता है, कन्या भ्रूण हत्या कर सकता है, घर आई बारारात कों वापस ले जा सकता है, घर से निकाल सकता है, नर्सिंगहोम, शव कों देने से मना कर सकता है,बेटी कों फीस न देने पर स्कूल से निकाल सकता है. पैसा मुजरिम कों कानून की पकड़ से मुक्त करा सकता है, पुलिस कों खरीद सकता है, नेता से ठेके दिलवा सकता है और ईमानदार अफसर  कों दण्डित भी करा सकता है,    भ्रष्ट IAS  कों सीने से लगाए रख सकता है.क्या नहीं कर सकता है पैसा ? पैसे के पूजने का समय है, हमारे साथ बोलिए, पैसे महाराज की....जैय!  

JAB SUNI HI NAHI JAA RAHI TO KAISE DUR HO BHRSTACHAR

देशभर में तेज़ी से फैल रहे भ्रष्टाचार कों लेकर हम जैसे करोड़ों लोग चिंतित हैं. चिंता की बात ये भी है की देश का प्रबुद्ध वर्ग   इस  विषय कों लेकर अब लगातार हताश और निराश होता जा रहा है. कारण ये है की सरकारी निकायों में अधिकारी रिश्वत लेते पकड़ा जाता है, और तंत्र उसे तरक्की दे देता है. ईमानदार अधिकारी भ्रष्टाचार कों रोकना चाहता है तो उसे अपमानित  होना  पड़ता  है.स्टिंग आपरेशन में पकडे जाने वाले एक सरकारी अधिकारी कों २००७ में  बहाल ही नहीं किया गया, उसे  तरक्की दे दी गयी और सरकार का मंत्रालय चुप्पी साधे रहा. वो VRS  लेता है और कुछ माह बाद फिर ज्वाइन  कर लेता है.  मंत्रालय चुप्पी साधे है. क्यों? जो  आईएस अधिकारी आवाज़ बुलंद करता है और गंदगी की सफाई करना चाहता है, व्यवस्था उसे ही लाइन हाज़िर कर रास्ते से हटा देती है, क्यों? तब कौन आगे आएगा? एक महिला IAS  ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सफाई अभियान शुरू किया तो व्यवस्था  ने उसे ही  पावेरलेस कर दिया.कहाँ है सारे आयोग और वे निकाय जो भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त कर देने का दम भरते हैं? पब्लिक सेक्टर में समाज सेवक आवाज़ बुलंद करता है तो गुंडे उसकी हत्या कर देते हैं, जैसा की अभी हाल में अन्नाहज़ारे के एक शिष्य की महाराष्ट्र में हत्या कर दी गयी आईएस का  नया बैच आने वाला है, हम उसे क्या विरासत में देंगे, और उससे क्या उपेक्षा करेंगे? ये एक अहम् सवाल है.पहले आवाज़ सुनी जाती थी ख्वाजा अहमद अब्बास ने एक पत्र पंडित जवाहर लाल नेहरु के नाम ब्लिट्ज में लिखा तो फ़ौरन सरकार हरकत में आ गई थी, आज मीडिया को ही सवालों के घेरे में ले लिया जाता है. तब ईमानदार लोग कहाँ जाएँ?.

HAATHI AUR MURTY PREM......MAYAVATI KA

उत्तर  प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती की प्रशंसा करना चाहिए की वो एक स्कूल की अध्यापिका से बड़े प्रदेश की मुख्यमंत्री की कुर्सी तक जा पहुंची.  ये आसान रास्ता नहीं था. कोई कुछ भी कहे, कैसा ही आरोप लगाए, मायावती की सफलताओं कों गंभीरता से लेना चाहिए. वो एक दलित की बेटी है, उनका अंग्रेजी बैकग्राउंड  नहीं था, उत्तर प्रदेश की राजनीति पर  संभ्रांत ब्राह्मणों, क्षत्रियों और बनियों का वर्चस्व रहा है, ऐसे में दलित की बेटी इतनी बुलंदी छूलेगी, किसी कों विश्वास  नहीं हो सकता था.
 
मायावती कों अमर हो जाने की हसरत है. बुरा भी नहीं है. इतिहास में लोगों ने कुवें खुदवाए, धरम्शालायें बनवाईं, मंदिर, चर्च,  मस्जिद और मकबरे बनवाए, नए-नए मत और धर्मों की बुनियादें रखीं. बादशाहों ने मुल्क जीते, मुल्कों में अपने सिक्के चलवाए, तो ये सब होता रहा है. शद्दाद ने तो ज़मीन पर अपनी जन्नत तक बनवा दी थी.अपने समय में हर ताक़तवर इंसान अपने कों अमर कर देना चाहता है. ताक़त और समझ के इस खेल में जहाँ समझ काम करती है, वहां ताजमहल बन जाते हैं.जहाँ ताक़त काम करती है, वहां लाक्षाघर बन कर खाक हो ख़ाक हो जाते है.मायावती एक समझदार राजनीतिज्ञ  हैं लेकिन ये भी सच है के हर समझदारी राजनीति से जुडी नहीं होती है. जो इतिहास से सबक लेते हैं, वर्मान पर निगाह रखते हैं और भविष्य का निर्माण करते हैं, वे इतिहास में भी लम्बी  उम्र पाते है. मायावती बस, यही नहीं जानती हैं. शाएद कोई उन्हें समझाने की सलाहियत भी नहीं रखता है. अकबर के दरबार में नौ रत्न थे. बादशाह अपने रत्नों से सलाह-मशविरा करता था.

आज़ादी के बाद के भारत कों देखें तो भारत की भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती  इंदिरा गाँधी  के पास भी अच्छे-बुरे सलाहकार थे, वो उन्हीं के सहारे भारत-पाक जंग जीत सकीं. जो बुरे थे, उन्होंने उन्हें चुनाव हरवाया भी. लेकिन इंदिरा जी की अपनी समझ ने अच्छे सलाहकारों पर भरोसा किया और इतिहास में अमर हो गयीं. उन्हें हाथियों की मूर्तियों की फ़ौज नहीं खड़ी करनी पड़ी. आज जब के वो नहीं हैं, किन्तु दुनिया उन्हें याद करती है. मुझे नहीं लगता की मायावती  के इर्द-गिर्द चाटुकारों के आलावा कोई हितैषी भी होगा. यदि होता तो उन्हें ये ज़रूर समझाता की मूर्तियों का भविष्य नहीं होता है. इतिहास में नालंदा और अयोध्या के गर्भ में हज़ारों जैनियों और बौद्ध  धर्म की मूर्तियाँ दफन हैं, क्या कोई सोच सकता था की सम्राट अशोक के समय के स्थापित बौद्ध  धर्म  कों प्रथम शंकराचार्य के अखाड़े  उसकी अपनी ज़मीन से ही बेदखल कर देंगे.  (और मोहनजोदड़ो-हड़प्पा जैसे असंख्य उदहारण भी हैं.) तो मालूम हुआ की कोई भी चीज़ स्थाई नहीं है. समय के गर्भ में सबकुछ समां जाता है. समय यदि कुछ याद रखता है तो वो है  पुन्य-आत्माओं कों, उनकी अच्छी सोच और अच्छे कामों कों....../- 

यदि मायावती अमर होना चाहती है और चाहती हैं के इतिहास उन्हें अच्छे अर्थों में याद रखे तो वो दलितों, शोषितों और पिछड़ों कों सशक्त बनाने का अभियान शुरू करें. उनके लिए रोज़गार के अवसर  उपलब्ध कराएँ, उन्हें शिक्षित करें, उनके दिलों में अपनी जगह बनाएं और भयमुक्त समाज का निर्माण करें. मनुवाद कोई विचार नहीं है. ये तो एक तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था की विवादास्पद संहिता रही है. आज देखें तो ब्राहमण के बेटे कों भी रोज़गार चाहिए और बनिए के बेटे कों भी. मुस्लिम समुदाय के बेटे कों भी रोज़गार चाहिए और दलित व् पिछड़े वर्ग के युवाओं कों भी. हाथी की मुर्तिया घरों में सूने पड़े चूल्हों में आग नहीं दहका सकतीं. .याद रहे,  रोब, आतंक, भय की उम्र नहीं हुआ करती. नमरूद हो या शद्दाद, कंस हो या हिरंकश्यप, ज़ार हो या नादिरशाह या सद्दाम, किसी की भी उम्र ने साथ नहीं दिया. ईसा हों या मोहम्मद, राम हों या कृष्ण, नानक हों या कबीर, गाँधी हों या आंबेडकर, सब दिलों में बसे रहते हैं. क्यों? मायावती जी आपने कभी महसूस किया की हज़ारों करोड़ रूपये हाथी की मूर्तियों की सुरक्षा में जो आप बर्बाद करने जा रही हैं, उनका भविष्य क्या होगा?    > 
दरिया-दरिया बहते-बहते, बीच समंदर आ पहुंचा, यार मुझको खबर नहीं है, आगे कौन सी मंजिल है.

PATRAKARITA MISSION NAHI GLAMOUR BAN CHUKI HAI.....

पत्रकार  पहले  भी  सुरक्षित  नहीं  था,  आज  भी  नहीं  है.  पहले  पत्रकार पत्रिकारिता  कों  मिशन  के  रूप  में लेता  था, (तब  माफिया  सशक्त  नहीं था,  आज  रोज़गार  के  रूप  में लेता है.  पहले  पत्रकार  नैतिक  मूल्यों  के  साथ  जीता था,  आज  स्थिति  बदल  गई  है. पत्रकारिता   में  पहले  भी  दलाली थी,  आज  कुछ ज्यादा  हो  गई है.  सड़क से  संसद  तक  पहुँचने  की  ललक  पहले  भी  थी,  आज  भी  है.  इन  सब  के  बावजूद  हमें  देखना  होगा  की  क्या  आज  पत्रकार  स्वतन्त्र  होकर  कुछ  लिख  सकता  है?  संपादक  (जो  अब  मैनेजर बन  चुका  है ) क्या  स्वतन्त्र  है?  मीडिया  के  अपने  हित  होते  हैं.  कभी  अखबार  कों  चलाने,  छोटे  परदे  की  टीआरपी  कों  बढ़ाने और व्यावसायिक - तंत्र  में   घुसपैठ  करते  रहने  की  अपनी  मजबूरियां  होती  हैं.  स्थायित्व का संकट हर समय बना रहता है.  अ- स्थिरता की तलवार हर समय लटकी रहती है. सैकड़ों लोगों कों सही समय पर वेतन देना होता है, तंत्र पर लाखों रूपये रोज़  का खर्च आता है.  ये बिलकुल  ऐसा ही है जैसे परिवार के मुखिया कों अपने घर का खर्च उठाना हो. कोई भी मुखिया अपने घर कों बर्बाद नहीं करता.  उसे खुशहाल देखना चाहता है.  लेकिन हम  स्वार्थ की दृष्टि से देखते हैं.  हम  जो  देखते  हैं,  वही  सच  नहीं  होता.  सच बहुत  विद्रूपता  लिए  हुए होता है.  यहाँ हम उसे दिखा नहीं सकते, बस महसूस ही करा सकते हैं. 
सच्चाई ये है की  आज  पत्रकारिता  मिशन  नहीं, ग्लैमर  का स्थान ले चुकी है.. इस  ग्लैमर  का  कुछ  लोग  लाभ भी  उठा  रहे  हैं. जहाँ पैसा, शोहरत, सुख-सुविधाएं और ग्लैमर होगा, वहां कुछ लोग लाभ उठाने के लिए बैक डोर से आ ही जाते हैं.  इस  विषय  पर  मैं  मीडिया  मंत्र   में   लिख  चुका  हूँ.  बहुत सी जगहों पर बहुत  बार  बोल  भी  चुका  हूँ.  वक़्त  के  साथ  बहुत  कुछ  बदलता  रहता  है. बहुत  से  पत्रकार  जो  आदर्शवाद  की  कलम  लेकर  मैदान  में  आते  हैं , उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ता है. अनेक संकटों का सामना करना पड़ता है. अक्सर ऐसा होता है की या  तो वे नौकरी  से  निकाल  दिए जाते  है,  या  माफिया  उन्हें  मारडालता  है. आप ह्वाईट कालर क्रिमिनल्स तक नहीं पहुँच सकते. वहीँ स्टोरी  होती है, लेकिन वहां आपकी संस्था का मालिक बैठा हुआ मिल जाता है. वो आपसे स्टोरी ले लेगा, फिर मरवा देगा. मरने वाले की कोई गारंटी नहीं लेता.  इतिहास भी  इसका  गवाह  है. ये इन्कलाब की बातें मत बेकार हैं.. बकवास है सब! इन्कलाब लाना है तो पत्रकारों कों  सशक्त करो, जीने की गारंटी  दो, उसके  परिवार  की  सुरक्षा  की  गारंटी, उसे  आर्थिक रूप  से  मज़बूत करने की गारंटी. तब पूछो की  उसके  नैतिक  मूल्य  क्या  हैं ? आन्दोलन लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अपनी बात सत्ता के कानों तक पहुंचाने का एक तरीका है. तरीका बुरा भी नहीं है. मगर क्या  कोई  पत्रकार  अपने  मालिक  से  बगावत  करके  नौकरी  बनाए रख सकेगा?

AATANKVAAD BHI ATIVADIYON KE SANGHARSH KA HIA RASTA...

मैं समझता हूँ की उन सवालों पर विचार ही न किया जाय जो सवाल उपहासास्पद हों.जो बुद्धिमान होते हैं, वे चिंतन करते है. जो अज्ञानी हैं, वे धर्म के लेबिल लगे खाली डिब्बों की तरह हैं, जिनमें कंकड़ पड़े हुए हैं. जवाब देने पर भी डिब्बे बजेंगे. धर्म जीवन जीने की एक शैली है. शैलियाँ भिन्न हो सकती है.शैलिया परम्पराओं कों जन्म देती हैं.परम्पराएं अच्छी-बुरी हो सकती है. इनकी स्वीकारोक्ति का आर्थिक आधार होता है. दाढ़ी रखना परंपरा में शामिल है. सभी धर्म के लोग रखते है. सभी न तो मुसलमान होते हैं और न ही आतंकवादी. आतंकवाद के जन्म के  कारणों का जानना  ज़रूरी है. हर युग  में आतंकवाद रहा है. कभी हमने आतंकवादियों  कों राक्षस कहा तो कभी बाग़ी या  टेररिस्ट,  जो वर्ग सम्बंधित लागू व्यवस्था कों स्वीकार नहीं करता, वो अपना अलग रास्ता चुनता है. आतंकवाद भी अतिवादियों के संघर्ष का एक रास्ता है. गाँधी जी इसके विरोधी थे लेकिन माओत्सेतुंग समर्थक. सद्दाम के खिलाफ जब एक वर्ग ने विद्रोह किया तो तानाशाही ने हजारों लोगों कों मौत के घाट उतार दिया. बुश ने देखा की वो उसके हितों कों चोट पहुंचा रहा  है तो उसने सद्दाम का ही तख्ता पलट दिया.यासिर अराफात की शुरूआत आतंकवाद की कोख से हुई थी. बाद में क्या हुआ, सब जानते है. इरानी इन्कलाब शाह के खिलाफ शुरू हुआ, अल्लामा खुमैनी आतंकवादी घोषित हो गए. सत्ता पलटी तो खुमैनी की विचारधारा कों संबल मिल गया. वो राष्ट्रवादी हो गए. मिस्र सहित दुनिया के असंख्य देशों की जेलों में असंख्य  बागी या विद्रोही अतिवादी बंद हैं. तो मालूम हुआ की सारी जंगें, झडपें और संघर्ष अस्तित्व के अस्थायित्व के लिए होती हैं. इसमें सफलता भी है और विफलता भी. जहाँ तक व्यक्ति का प्रश्न है, वो  न बुरा होता है  न अच्छा, वो तो परिस्थितियों का दास है. जंगली पशुवों की तरह उसका भी जीवन-संघर्ष चलता रहता है.